रविवार, 1 अक्तूबर 2017

हमारी आवाज़ में अमर हैं गांधी और शास्त्री

मुझे जंतर-मंतर जाना इसलिए भी अच्छा लगता है, क्योंकि वहां अपने हक़ की आवाज़ उठा रहे लोगों में मुझे गांधी का अहसास होता है। वर्तमान भारत में गांधी के जिंदा होने का सबसे बड़ा सबूत यही है कि सत्ता और व्यवस्था द्वारा सताए जाने के बाद भी लोग सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर दिल्ली पहुंचते हैं और संसद की कान कही जाने वाली जगह पर बैठकर गांधीगिरी के जरिए अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं। वो चाहे महाराष्ट्र का किसान आंदोलन हो या सीकर का या हरियाणा के रेवाड़ी में बालिका उच्च विद्यालय को इंटर कॉलेज करने की मांग, ये सभी गांधीगिरी के रास्ते पर चलकर ही सफ़ल हुए। वर्तमान भारत में सरकार और व्यवस्था के खिलाफ आम आदमी के पास सबसे बड़ा हथियार है, सूचना का अधिकार, इस अधिकार की आधारशिला गांधीगिरी के जरिए ही रखी गई थी। कमोबेस 6 दशक तक भारत में सियासी एकाधिकार स्थापित करने वाली कांग्रेस की ताबूत में कील ठोकने का काम भी गांधीवादी लोगों ने ही किया, 1975 में जेपी ने और 2011 में अन्ना ने। वो जेपी की गांधीगिरी ही थी, जिसने खुद को महारानी समझने वाली इंदिरा की सियासत को सड़कों पर ला दिया और 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 2011 का अन्ना का अनशन-आंदोलन नहीं होता, तो 2014 में केंद्र में ऐतिहासिक तख्तापलट न होता।
हमारे लिए यही सुकून की बात है कि भारत में गांधी और शास्त्री को जिंदा रखने के लिए हमें सरकारों की राह नहीं देखनी पड़ती। यहां हक़ की हर आवाज़ में गांधी हैं और संघर्ष से सफलता हासिल करने की हर कहानी में शास्त्री। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने लिए एक कोट नहीं खरीद सकने वाले शास्त्री हर उस भारतीय के जेहन में ज़िंदा हैं जो ईमानदारी और सादगी से जीवन व्यतीत करता है। मेरा तो मानना है कि गांधी और शास्त्री के जिक्र के बिना भारतीय इतिहास अधूरा ही नहीं रहेगा बल्कि अपना आरंभ भी नहीं कर सकेगा। ये दोनों महापुरुष भारतीय इतिहास की वो बुनियाद हैं, जिनपर वर्तमान और भविष्य का भारत विकास और सफलता की इमारत खड़ी कर रहा है। यह बात अलग है कि सियासी महत्वाकांक्षा और सत्तालोलुपता गांधी और शास्त्री को वर्तमान में 2 अक्टूबर, 30 जनवरी और 11 जनवरी तक समेटती जा रही है। आज सत्ता और सियासत की एक बड़ी आबादी के लिए गांधी जी और शास्त्री जी सिर्फ राजघाट और विजय घाट तक सीमित हैं और दुर्भाग्यवश यहां वे भी मत्था टेकते हैं जिनके कर्मों की वजह से देश गांधी और शास्त्री के रहने के लायक भी नहीं बचा। आज जबकि सार्वजिनक रूप से गोडसे गाथा का पाठ हो रहा है, शास्त्री जी की शहादत आज तक रहस्य बनी हुई है, इस समय इन्हें सत्ता और व्यवस्था की तरफ से दी जा रही श्रद्धांजलि क्या खोखली नहीं है... खैर, सत्ता और सियासत से अब ये आशा भी नहीं है कि वे गांधी और शास्त्री के सपनों का भारत बनाएंगे, ये जिम्मेवारी अब सीधे तौर पर आम भारतीयों के कंधों पर आ गई है और वे इसका निर्वहन भी कर रहे हैं... भारत को आज़ादी दिलाने वाले गांधी और उस आज़ादी को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करने वाले शास्त्री की इस जयंती पर आधुनिक भारत के इन दो निर्माताओं को शत-शत नमन...

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