बुधवार, 15 जून 2016

काश! हम जुदा ना होते...

कुछ साल पहले गूगल मैप का एक ऐड आया था जिसमे भारत-पाक बंटवारे के कारण बचपन में ही बिछड़ गए दो जिगरी दोस्तों को उम्र के अंतिम पड़ाव में मिलते दिखाया गया था उस विज्ञापन को देखकर भारत-पाक के भाईचारे वाले रिश्ते के लिए पहली बार मेरी आँखें नम हुई थी। यह वीडियो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि केवल सरहद और सियासत बंट जाने से दिल नहीं बंटते, आज भी पकिस्तान की आवाम का दिल हिन्दुस्तान की आवाम के लिए और हिन्दुस्तान का पाकिस्तान के लिए धड़कता है। आखिर दोनों की मिट्टी एक जो रही है। आज भी लोग उस क्रिकेट को नहीं भूले हैं जब बैटिंग करते समय ‘राहुल द्रविड़’ के जूते का फीता खुल गया था, जिसे शायद भारतीय खिलाडियों ने भी देखा हो लेकिन माहौल उस समय बदल गया जब पाकिस्तानी टीम के सबसे उम्रदराज खिलाड़ी ‘इन्जेमामुल हक’ ने पीच से आकर उस फीते को बांधा था आज भी गाँवों की गलियों में लोग कहा करते हैं कि काश! ऐसा होता कि एक क्रिकेट टीम होती जिसमे सचिन और सोएब एक साथ खेलते, फिर किस देश की हिम्मत थी हमारे सामने अड़ जाने की। पर अफ़सोस कि इस काश को काश ही रह जाना है।
दिल के ये जज्बात आज इसलिए शब्दों के जरिए बयां हो गए क्योंकि 15 जून ही वह तारीख है जिस दिन प्रेम और अपनत्व पर ‘फूट डालो और शासन करो’ की चाल भारी पड़ गई। 15 जून 1947 को ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत के बंटवारे की योजना स्वीकार की और इस तरह से अंग्रेज दिलों और जज्बात के रिश्तों पर नफरत के वो बीज बो गए जिसके कुफल आज भी दोनों तरफ की मानवता और सामाजिकता का गला घोंट रहे हैं। यह संयोग ही है कि बंटवारे के बाद के वीभत्स नरसंहार को सिनेमाई परदे पर उतारने वाली फिल्म ग़दर भी आज से 15 साल पहले ही रिलीज हुई थी। जी हाँ वही ग़दर जिसे देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आँखें नम हो जाती हैं और मुट्ठियाँ भींच जाती हैं। पर अफ़सोस कि हम इसके सिवाय कुछ कर भी नहीं सकते। जो मानसिकता बंटवारे की कठिन घड़ी में भी अपना-पराया भूल गई वह आज भी दोनों तरफ ज़िंदा है और यही कारण भी है कि आज बंटवारे के लगभग 7 दशक बाद भी ना वो चैन से हैं ना हम। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि आज हमारी सामरिक शक्ति उन्हें चैन से सोने नहीं देती और उनका परमाणु हथियार हमें हर दिन खौफ में रखता है। हालात कुछ भी हो पर उस समय बिछड़ गए दो अपने जब आज मिलते हैं तो ‘गदर’ का यह डायलॉग याद आ जाता है कि ‘सियासत बदल गई...वतन के नाम बदल गए...पर दिल के जज्बात तो नहीं बदले जा सकते न...’
काश ! दोनों तरफ के निति नियंता कभी ठंढे दिमाग से सोचते कि क्या मिला हमें इस जमीनी लकीर से दिलों की दूरियाँ बढ़ा कर? क्या हर दिन सीमा पर शहीद हो रहे दोनों तरफ के जवानों के परिजन उस पल को नहीं कोसते होंगे जब ‘हम जुदा हो गए थे।’ बड़ा भाई होने के नाते भारत ने तो हर मौके पर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, हर बार यह साबित करने की कोशिश की है कि छोटे भाई के लिए हमारे दिलों में अब भी वही जगह है। पर अफ़सोस कि छोटा भाई अब भी उन दूसरों की बातों में ही उलझा है जिनके कारण हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के साथ की दुश्मनी भारत के लिए फायदे का सबब रही है। युद्दों में जीत की खुशी सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण होती है, व्यक्तिगत रूप से युद्ध कितने घातक हैं यह वे ही बता सकते हैं जिन्होंने इसका दंश झेला है। काश दोनों तरफ के निति नियंता किसी शायर की इन पंक्तियों का मर्म समझ पाते कि,       
 ‘...यार हम दोनों को यह दुश्मनी भारी पड़ी,
रोटियों का खर्च तक बन्दूक पर होने लगा...।’

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