मंगलवार, 13 सितंबर 2016

आत्मसात करने से समृद्ध होगी हिंदी, आयोजन करने से नहीं

पिछले साल हिंदी दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला था। आयोजकों ने एक चैनल के एंकर को हिंदी पर अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित किया था। एंकर महोदय ने माइक थामा, पर्चा निकाले और शुरू हो गए। बात खत्म करने के बाद  'Thanx' बोलकर सीढ़ियों की तरफ बढे। तभी शायद याद आया कि अरे आज तो हिंदी दिवस है, फिर मुड़े और माइक के पास जाकर बोले,  'Sorry...माफी चाहूंगा।' उसी दिन शाम में वही महोदय अपने चैनल पर औरंगजेब रोड वाले मुद्दे पर चर्चा में अशोक को बार-बार अशोका कह रहे थे। 
हर साल हिंदी दिवस पर यही होता है, पूरे साल हिंदी पर अंग्रेजियत को थोपने वाले चंद लोगों को माइक पकड़ा दिया जाता है और वे भी जाते जाते 'Thanx-Sorry' बोल जाते हैं। गलती उनकी भी नहीं है, माहौल ही कुछ ऐसा तैयार हो रहा है कि हिंदी को पिछड़ेपन की निशानी बना दिया गया है। नई पीढ़ी की एक बड़ी आबादी का क, ख, ग, घ से कोई वास्ता नहीं है। उनके अक्षर पहचान का पैमाना ही A, B, C, D बन गया है। जो अखबार आज हिंदी दिवस के रंग में रंगे नजर आएंगे वे भी साल भर अंग्रेजियत को मजबूती प्रदान करते नजर आते हैं। उनकी नजर में आज की युवा पीढ़ी 'परिस्थिति' नहीं समझ सकती, उसके लिए उन्हें 'सिचुएशन' सटीक लगता है। जब ये ही ऐसे करेंगे तो कैसे समृद्ध होगी हिन्दी। जो हिंदी के मठाधीश हैं वे भी इसकी समृद्धि में बाधक बन बैठे हैं। अंग्रेजी के शब्दकोष में 80 प्रतिशत शब्द दूसरे शब्दों के हैं, जबकि हिंदी के शब्दकोष में आज भी उतने ही शब्द हैं जितने 50 साल पहले थे। हिंदी के वैयाकरण लोग दूसरी भाषा के शब्दों को हिंदी के लिए अछूत समझते हैं। इस मुद्दे पर इस बार के 'तहलका' में महशूर भाषाविद 'राजेंद्र प्रसाद सिंह' जी का बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख प्रकाशित हुआ है। आज तो पूरे दिन फेसबुक ट्विटर मैकाले के पत्र और भारतेंदु जी के श्लोक से भरा रहेंगे। मुझे 'शिवकुमार बिलग्रामी' जी की ये पंक्तियां याद आ रही हैं: 
'धनवान भी इस देश में क्या क्रेज रखते हैं,
हिंदी सिखाने के लिए अंग्रेज रखते हैं।'

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