गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

राष्ट्रहित में राष्ट्रवाद का पेंच

पिछले दिनों पीटीआई ने खबर दी कि 'प्रधानमंत्री जी की तरफ से ऐसी कोई अपील नहीं है कि दिवाली पर केवल भारत में बनी वस्तुएं ही खरीदें।' बात भी सही है। माना कि देश में बने उत्पादों का उपभोग स्वाभिमान के साथ विकास का सूचक है। लेकिन राष्ट्रवाद की अंधी दौड़ में आप वैश्वीकरण को झुठला नहीं सकते। जिस समय भारत में चीन में बनी फुलझड़ियाँ, जो फ्यूज हो चुकी थीं और मोबाइल के फ्लिप कवर और स्क्रीन गार्ड में आग लगा कर भारत प्रेम की ज्वाला जगाई जा रही थी, उसी समय 20 अक्टूबर को भारतीय सैनिक, चीनी सैनिकों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास कर रहे थे। जिस चीन ने 54 साल पहले छल से हमारी संप्रभुता पर चोट की और आज हमारे पड़ोसी को हथियार मुहैया करा रहा है, उसके साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास जायज है, उसके पैसे से मोदी जी की महत्वाकांक्षी योजना, स्मार्ट सिटी को संजीवनी मिले यह जायज है, उसके पैसे से भारत की जीडीपी में उछाल लाया जाए यह जायज है, लेकिन उसकी बाजार से कुछ छोटे-मोटे सामान खरीद कर भारत में अपनी रोजी-रोटी चलाना नाजायज है... वाह रे देशभक्ति और वाह रे बुद्धिमता... और हाँ, जिस इनडायरेक्ट रिलेशन से हम पाकिस्तान से होते हुए चीन विरोध तक पहुंचे हैं, उस डायरेक्ट रिलेशन वाले पाकिस्तान से हिंदुस्तान की कथित 'दुश्मनी' की भी कहानी सुनिए... जिस समय उड़ी हमला हुआ उस समय भी और जिस समय सर्जिकल स्ट्राइक हुआ उस समय भी और आज भी अटारी बॉर्डर, अमन सेतु, सदा-ए-सरहद, या चकन-दे-बाग से हजारों बस और ट्रक आ-जा चुके हैं, समझौता एक्सप्रेस उसी रफ्तार से दौड़ रही है, भारत-पाकिस्तान के बीच हॉकी के मैच में आज भी वही रोमांच था, 'खून और पानी आज भी साथ बह रहे हैं, पाकिस्तान से मोस्ट फेवरेबल नेशन का दर्जा छीने जाने पर हुए मीटिंग्स की फाइलों की ग्रह दशा बदल गई है। ले-दे कर बात यह है कि कूटनीति-सियासत और राष्ट्रवाद को एक ही डंडे से नहीं हांका जा सकता...। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें