मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

6 दिसम्बर: स्तंभों के ढहने और जनता के बिलखने का दिन...

वह 6 दिसम्बर ही था जब नियति ने उन लाखों लोगों को स्तंभहिन कर दिया जिनको आम्बेडकर ने सर उठा कर जीने की ताकत दी... वह 6 दिसम्बर ही था जब एक स्तंभ का गुंबज गिरते ही धर्मनिरपेक्ष भारत की बंधुता धाराशायी हो गई थी... वह 6 दिसम्बर का सूर्य ही था जिसने विश्व जगत को यह मनहूस खबर दी कि लाखों लोगों के लिए स्तंभ, वह मंडेला नहीं रहे जिनके शब्दों ने ना सिर्फ अफ़्रीका बल्कि पूरे विश्व को अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाया... और आज भी 6 दिसम्बर ही है जब तमिलनाडु के लाखों लोग अपने सियासी व सामाजिक स्तंभ 'अम्मा'  के लिए बिलख रहे हैं... उस अम्मा के लिए आज देश आंसुओं में डूबा है, जिन्होंने जनता को अपना समझकर जननेता  की एक नई परिभाषा गढ़ी... अभी 'आज तक' पर जयललिता के साथ प्रभु चावला के पुराने 'सीधी बात' कार्यक्रम का प्रसारण हो रहा है... जयललिता बोल रही हैं, 'राजनीति नहीं प्रजा मेरा परिवार है, एआईडीएमके के लाखों कार्यकर्ता मेरा परिवार हैं'... आज यह बात सच साबित हो रही है... खैर, एक बहुत पुराना टीवी विज्ञापन याद आ रहा है-
'जाने वाले तो एक दिन चले जाते हैं,
सिर्फ यादें ही अपनी वो दे जाते हैं,
नाम उनके स्मारक बनाते रहें,
उनकी यादों को यूं ही सजाते रहें...'

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