मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

सलाम... सदी के दो महानायकों को..

'जहाँ खड़े हो जाते हैं लाइन वही से शुरू होती है...' रील लाइफ में यह डायलॉग सिनेमाई महानायक की पहचान है, लेकिन इसे रियल में जिया है, सियासी और सामाजिक महानायक ने। इत्तेफाक से आज दोनों का जन्मदिन है। आजादी भारत में पहली बार जब अराजकता और अहंकार जनहित पर हावी होने लगा और सियासी नारों की गूंगी गुड़िया खुद को गणतंत्र का गनमैन समझने लगी तब भारत ने एक सियासी महानायक का उद्भव देखा। उनकी जिस आवाज ने कांग्रेस के कानों तक दस्तक दे कर उसे उसकी औकात से अवगत कराया, वह सिनेमाई महानायक द्वारा 'नमक हराम' में बोले गए इस डायलॉग जैसी ही थी कि 'है किसी माँ के लाल में हिम्मत जो मेरे सामने आए।' 70 के दशक का वह सियासी महानायक कांग्रेस के लिए कालिया भी था और काल भी। जेलर  रूप में कांग्रेस की महारानी भले ही अपने सियासी अवसान की दस्तक को दबाने की कोशिश में लगी थीं, लेकिन उस महानायक की आवाज, कश्मीर से कन्याकुमारी और कोहिमा से कांडला तक को जम्हूरियत की अहमियत का अहसास करा रही थी। उम्र के अंतिम पड़ाव में भी जेल से उस महानायक ने जो हुंकार भरी उसकी गूंज जेलर रूपी 'सरकार' तक जिस रूप में पहुंची वह सिनेमाई महानायक की 'कालिया' की आवाज जैसी ही थी, 'आपने जेल की दीवारों और जंजीरों का लोहा देखा है, कालिया की हिम्मत का फौलाद नहीं देखा।' आखिरकार 1977 में उस सियासी महानायक के नेतृत्व में जम्हूरियत ने सत्ता और सियासत को खैरात समझने वालों की खैरियत बिगाड़ी। कांग्रेस को सत्ता से सड़क पर लाने वाले इस सियासी महानायक के देश के सर्वोच्च पद को अस्वीकार करने के बाद जो सन्देश कांग्रेस के कानों तक पहुंचाया, वह सिनेमाई महानायक के  'त्रिशूल' के इस डायलॉग जैसा ही था कि 'आज आपके पास आप की सारी दौलत सही, सब कुछ सही, लेकिन मैंने आपसे ज्यादा गरीब आज तक नहीं देखा।'
महानायकों की गौरव गाथा उनके नाम की मोहताज नहीं होती। जब तक सूरज-चांद रहेगा, सियासत जेपी और सिनेमा अमिताभ के नक्से कदम पर चलते रहेंगे...और हाँ, जेपी कभी मरते नहीं, अमर होते हैं।

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