शनिवार, 27 अगस्त 2016

आजादी का अंधेरा

'जिसे मैंने सुबह समझ लिया,
कहीं वो भी शाम-ए-अलम न हो।'
इश्क में ख़्वाब के अधूरे रह जाने के डर को बयां करता मुमताज नसीम का यह शेर सियासी सपनों की आशंका के संदर्भ में भी सही प्रतीत होता है। आजादी के बाद से अब तक हर पांच साल के बाद एक नए सुबह की आहट का सपना दिखाया गया। पर अफ़सोस कि हकीकत अँधेरे के रूप में ही सामने आया। 68 साल की आजादी में संविधान के प्रस्तावना की पहली पंक्ति 'हम भारत के लोग' को भी हमारे नीतिनियंताओं द्वारा सार्थक करा पाने में विफल रहने के बाद जब 2 साल पहले गुजरात से आई एक आवाज ने कानों तक 'सबका साथ सबका विकास' की बात पहुंचाई तब लगा था कि अब असली आजादी का सूरज उदित होगा, पर आज भी हकीकत लगभग वही है। एसी कमरों में बैठकर राष्ट्रवाद का चालीसा पढ़ने वाले क्या जाने कि इस मुल्क की एक बड़ी आबादी को आज भी आजादी मयस्सर नहीं है। जबर्दस्ती स्कूल बंद कराकर बच्चों और अपने भाड़े के टट्टुओं के हाथों में तिरंगा थमा कर  भारत माता की जय के नारे लगवाना आजादी की निशानी नहीं है। आजादी की निशानी वह होती जब अपने खून पसीने से सींचकर उपजाए गए प्याज को एक किसान 5 पैसे प्रतिकिलो नहीं बेचता। यह देश सच्चे अर्थों में आजाद तब कहलाता जब एक आम आदमी को सुविधा और साधन के अभाव में अपनी पत्नी के शव को पीठ पर लादकर 10 किलोमीटर पैदल नहीं चलना पड़ता। हर साल सरकार जानती है कि बारिश होगी, बाढ़ आएगा लेकिन फिर भी हर साल हजारों लोग मर जाते हैं, बेघर हो जाते हैं...। 
क्या यही आजादी है...? जब तक सरकारें आंकड़ों की आड़ में असलियत से पर्दा करती रहेगी तब तक हालात यही रहेंगे। हिंदुस्तान की हकीकत यही है कि आजादी के बाद से ही राम राज के जिस विरासत को हमारी सियासत अपनाने की बात करती है वह चंद घरों से आगे नहीं बढ़ पाता। सही कहा था अदम गोंडवी जी ने...
'भूने काजू प्लेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।'

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