शनिवार, 6 अगस्त 2016

दिल वाली दोस्ती...

सिकटा हॉस्टल में हम तीनों की जुगलबंदी के किस्से मशहूर थे...साल 2009 की बात है, जून या जुलाई की एक रात थी। खाने के बाद मैं और सचिन स्कूल की छत पर टहल रहे थे। लौटते समय छत पर ही एक मछरदानी का बाती (बांस का लंबा डंडा जिसके सहारे मच्छरदानी लगाते हैं) हाथ लग गया। मैं उसके एक सिरे को हाथ से पकड़ के दूसरा सिरा जमीन पर टिकाए हुए चल रहा था। छत की सीढ़ियों पर बाती के निचले सिरे के टकराने से उत्पन्न आवाज से मन में एक शरारत सूझी। हॉस्टल में ही एक सर रहते थे। वैसे तो हमें बहुत प्रिय थे और छात्रों के बीच लोकप्रिय भी। लेकिन उस दिन किसी अनजाने में हुई गलती पर मुझे उनसे सबके सामने डांट सुनना पड़ा था। किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ा बालमन बदले की भावना में बह गया। सर खिड़की के सामने ही सर रख के सोते थे। खिड़की के सामने आने के बाद जब उनके खर्राटे ने साबित किया कि सर गहरी निद्रा में हैं, मैंने बाती को खिड़की के रड पर (खिड़की में लोहे की सरिया लगी थी) इधर से उधर कई बार किया। बार बार की ऐसी क्रिया से उत्पन्न टर्र-टर्र की आवाज से हमारी आंतरिक खुशी और सर की निद्रा में खलन बढ़ने की गति समान थी। परंतु हम इस चिंता से बहुत दूर की अब सर की नींद खुल भी सकती है, अपनी मस्ती जारी रखे हुए थे। मेरे बाद सचिन ने भी 'बदला' लिया। अचानक दरवाजा खुला और एवरेडी के तीनसाळा टार्च (उन दिनों तीन बैट्री वाला एवरेडी का टॉर्च चलन में था) की पीली रौशनी हमारी आँखों पर पड़ी। पहली बार अहसास हुआ कि हम बिजली से भी तेज रफ़्तार में दौड़ सकते हैं। बाती फेंक कर हम दोनों ने दौड़ लगा दी। सर के रूम के बाद तीसरा कमरा हमारा था। कमरे में घुसते ही सचिन चौकी के निचे घुसा और मैं कूद कर दिव्यप्रकाश के बेड पर दीवाल की तरफ सो गया ताकि लगे कि मैं पहले से सो रहा हूँ। सर हमें कमरे में घुसता देख चुके थे लेकिन पहचान नहीं पाए थे। वैसे ये तो जान गए थे कि हम तीनों में से ही कोई दो था। एक गलती और ये हुई थी कि घुसते हुए सचिन ने दरवाजा बंद कर दिया था। अब तो सर दरवाजा पिटे जा रहे थे...'खोलो जल्दी...जल्दी खोलो...मेरे साथ दिल्लगी कर रहे हैं...अभी बताता हूँ...' बवाल को ज्यादा हवा ना लगे इसलिए सचिन धीरे से अंदर से निकल दरवाजा खोल दिया। सर का शिक्षक मन यही समझा कि जो दो लोग बिस्तर पर हैं उन्ही का कारनामा है, किनारे पर मिल गया दिब्यप्रकाश...बेचारे को नींद में ही जोर का लगा...तड़ाक...निर्दोष आदमी सजा के बाद घायल शेर हो जाता है। इसने भी दहाड़ मारी...मैंने क्या किया...फिर तड़ाक...। मैं तो तकिये में मुंह दबा कर हंसी रोक रहा था लेकिन चौकी के निचे सचिन से हंसी नहीं रुक सकी। बेचारा पकड़ा गया। निकलते हुए बोला...'सर मैं तोड़ (रस्सी) खोज रहा था, हेड सर मांगे हैं मच्छरदानी बाँधने के लिए।' दिब्यप्रकाश तो समझ गया कि ये इन दोनों का ही करा धरा है...फिर मुझे खिंच कर हाजीर किया गया...तड़ाक का शोर मेरे गालों से भी होकर गुजरा...अंततः हमने अनुनय विनय कर के मामला उसी समय रफा दफा करा लिया...
इस अनोखे रिश्ते के अजीब-अजीब किस्से हैं...बेतिया और दिल्ली ने भी ऐसे दोस्त दिए जिनसे प्रगाढ़ प्रेम है। उन सबके लिए आज दिल से दुआ। लेकिन ये किस्सा आज इसलिए याद आ गया क्योंकि दिल पर दिमाग के हावी होने के बाद की शरारत प्रायोजित होती है। बचपन जिंदगी का एक ऐसा मोड़ है जिसकी गलतियां ही आगे की जिंदगी के लिए सबक का काम करती है। उच्च शिक्षा के बाद की दोस्ती दिमाग और जरूरत से होती है लेकिन बचपन की दोस्ती दिल के रास्ते से गुजरती है...दिमाग से हुई दोस्ती की मियाद बहुत बार बहुत कम होती है क्योंकि कई बार इसपर अहम् और प्रतिस्पर्धा हावी हो जाती है...काश ताउम्र ऐसा होता कि दोस्तों में उपजी दुश्मनी का इलाज एक दूसरे की छोटी उंगली का स्पर्श ही होता...

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