गुरुवार, 25 जनवरी 2018

गुंडातंत्र न बन जाए हमारा गणतंत्र

'भले ही हमारा देश 15 अगस्त को स्वतंत्र हुआ, लेकिन हमें असली आज़ादी मिली थी आज के दिन, यानि 26 जनवरी को। आज ही के दिन हमारा संविधान लागू हुआ और हमें भारतीय होने का दर्जा हासिल हुआ...' स्कूली दिनों में आज के दिन का हमारा भाषण ऐसा ही होता था। तब इस भाषण को रटना पड़ता था, तब भले ही समझ उतनी विकसित नहीं थी, लेकिन आस्ता भरपूर थी। दिल्ली आने के बाद याद नहीं कि कभी मैं बिना खाए या पूजा करके झंडा फहराने गया हूं, लेकिन स्कूली दिनों में यह हमारे लिए सामाजिक नहीं व्यक्तिगत उत्सव हुआ करता था, जिसमे भगवान भी शामिल थे, गांधी-नेहरू-भगत-सुभाष भी और सेना के वीर सिपाही भी। तब हम मन्दिर में जल चढ़ाने के बाद झंडा फहराने जाया करते थे वो भी बिना अन्न ग्रहण किए, क्योंकि वो भी एक तरह से पूजा के समान था। तब का बालमन भी उस दिन की पूजा में खुद की नहीं, देश की हिफाजत की दुआ करता था। 
आज ऐसे ही सोच रहा था कि क्या सभी का बचपन ऐसा ही बीता होगा, खासकर उनका जो आज थोथी इज्जत के नाम पर शासन की धज्जियां उड़ा रहे हैं और सियासी शह जिनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने 'स्व' से आगे पढ़कर 'पर' के बारे में कभी सोचा होगा, देश के लिए दुआ करना तो दूर की बात है। क्योंकि जो देश की संपदा को विनष्ट करना अपनी जीत समझे, जिसके लिए लोगों में भय का माहौल पैदा करना उद्देश्य की प्राप्ति हो, जो देश की सर्वोच्च संस्था न्यायपालिका को अपने जूते की नोक पर रखे और जो अपनी बात मनवाने के लिए बच्चों से भरी बस पर भी पत्थर फेंकने से गुरेज न करे, वो खुद के बारे में तो सोच सकता है, लेकिन देश के बारे में नहीं। देश एक व्यक्ति, एक संस्था या एक जातिगत समूह से नहीं बनता, खासकर भारत जैसे देश की पहचान तो वैसी नहीं है। विविधता में एकता हमारी पहचान रही है, पर अफसोस कि एकता के नाम पर एकरूपता लादी जा रही है। ऐसा तो गणतंत्र नहीं था हमारा। न सिर्फ शासन बल्कि सामाजिकता के स्तर पर भी हमें आत्ममंथन की जरूरत है। आज तो पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों को भी करणी सेना के करतूत वाजिब दिख रहे हैं। जिन्हें अपने दादा-दादी से बैठकर बात करने की फुर्सत नहीं, जो अपने परदादा-परदादी का नाम तक नहीं जानते, वे भी आज पद्मावती के बहाने विरासत बचाने की बात कर रहे हैं। आज जब हमारा गणतंत्र 69वे साल में प्रवेश कर गया, हमें सोचना चाहिए कि इतने सालों में हमने क्या पाया और जो पाया उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए क्या प्रयत्न कर रहे हैं। केवल राजस्थान की ही बात करें, तो किसी भी क्षेत्र के किसी अखबार का कोई संस्करण ऐसा नहीं होता है, जिसमे किसी भी दिन बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध की कोई घटना नहीं हो, लेकिन आजतक किसी भी संगठन ने उसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई। जिन राजूपत राजघरानों की राजकुमारियां आज विदेशों की पाश्चात्य संस्कृति में सराबोर हो रही हैं, उन्हें ये चिंता सताने लगी कि सिनेमा के पर्दे पर पद्मावती देवी का किरदार निभा रही अभिनेत्री का पेट क्यों दिख रहा है। दिक्कत यह है कि हम अपने बंधे-बंधाए दायरे से बाहर निकलना नहीं चाहते। 
हमने न सिर्फ बचपन से पढ़ा है, बल्कि देखा भी है कि हमारे आस-पास के लोगों का आचार-विचार, बोल-चाल, रहन-सहन सब भिन्न होता है। मेरे गांव से महज 2 किमी की दूरी पर एक मुस्लिम बहुल गांव है, उनकी भाषा हमारे गांव की भाषा से अलग है, उनका पहनावा और रहन-सहन भी हमसे अलग है। लेकिन न सिर्फ हम सद्भाव वाले पड़ोसी गांवों के हैं, बल्कि उस गांव के बच्चों के साथ मैं हॉस्टल में भी रहा हूं। यह है हमारा वास्तविक गणतंत्र, पर अफसोस कि यह 'है' अब धीरे-धीरे 'था' में बदलता जा रहा है। दुर्भाग्यवश ऐसा कहना पड़ रहा है कि वर्तमान का भारत हमें हमारे वास्तविक भारत से अलग छवि पेश कर रहा है। हम मानते हैं कि हर दौर में अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल होता रहा है, हर दौर में लोगों की भावनाएं आहत होती रही हैं, हर दौर में गुंडे-मवाली सड़कों पर आते रहे हैं, लेकिन क्या हर दौर में सरकार के इक़बाल पर सवालिया निशान खड़ा होता रहा है? क्या हर दौर में सरकार ने निरीह-निस्पृह होने का दिखावा करते हुए हुड़दंगियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है? हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने जब पहली बार कहा था कि 'संविधान हमारे लिए ग्रन्थ है' तब लगा था कि इस सरकार में वैसा कुछ नहीं होगा जैसा 1975 में देश के संविधान के साथ और 1984 में देश के भाईचारे के खिलाफ हुआ था। लेकिन इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देशभर से आने वाली खबरों ने हमारे उस विश्वास की चूलें हिला दी हैं कि अब वैसा कुछ नहीं होगा। सप्ताह भी पूरे नहीं हुए जब हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा था कि 'मैं चुनावी फायदों को ध्यान में रखकर फैसला नहीं लेता', तो क्या आहत भावना के नाम पर गुंडागर्दी करने का खुला छूट दे देना चुनावी फायदे को ध्यान में रखकर लिया जाने वाला फैसला नहीं है? कौन नहीं जानता कि पद्मावती रिलीज नहीं करने वाले मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और गोवा में किसके आदेश से शासनात्मक पत्ता हिलता है? कांग्रेसी शासन के भ्रष्टाचार से त्रस्त भारतवासियों को सुकून मिलता था मोदी जी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से, लेकिन अगर कांग्रेस मुक्त भारत का असली ध्येय यही है कि सब जगह मनमाफिक हुक्म चलाया जाए, फिर क्या फायदा इस कांग्रेस मुक्त भारत का? इसी 26 जनवरी से कुछ दिन पहले 2015 में अपनी कुछ लोकतांत्रिक मांगों को लेकर धरने पर बैठे अरविंद केजरीवाल को अराजक की संज्ञा दी दी गई थी, वो भी इन्हीं भाजपाइयों द्वारा, लेकिन देशभर में शासन की छाती पर मूंग दलने वाले मुट्ठी भर हुड़दंगियों के खिलाफ निंदा के दो शब्द बोलना भी हमारी सरकार ने जरूरी नहीं समझा है। हम वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान बुलन्द करने की बात करते हैं, लेकिन उन 10 आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्षों को हम किस तरह के भारत से रूबरू कराया रहे हैं, जो अभी नई दिल्ली में हैं। क्या अभी उन तक सिर्फ भारत-आसियान बैठक की खबर ही पहुंचती होगी, क्या वे इंरनेट और टीवी के जरिए नहीं देख रहे होंगे कि मीटिंग हॉल और लाटीयन की दिल्ली के बाहर का भारत अभी किस माहौल में जी रहा है? हमने तो सिंघम फ़िल्म के इस डायलॉग को शासन का चरित्र समझ लिया था कि 'पुलिस चाह दे तो किसी मंदिर के आगे से कोई एक जूता भी नहीं चुरा सकता', तो क्या मैं गलत था...? क्या गुंडातंत्र बनना ही अब इस गणतंत्र की नियति है...?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें