रविवार, 1 मई 2016

मज़बूरी का नाम मजदूरी...

'कुचल कुचल के न फ़ुटपाथ को चलो इतना
यहां पर रात को मज़दूर ख़्वाब देखते हैं...'

भले ही एक चाय बेचने वाले की सियासी संगत उसे सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा दे, लेकिन अहमद सलमान के इस शेर की सार्थकता भारत और भारतीयता का दुर्भाग्य बनी रहेगी। मखमली चादर कभी भी एक मजदूर के ख्वाब का बिस्तर नहीं हो सकता... आज मजदूर दिवस है, मजदूरों की दीन-दशा पर आज फिर कशीदे गढ़े जाएंगे, जीडीपी में इनका योगदान ट्विटर पर ट्रेंड करेगा। प्रधानमंत्री जी ने तो ट्वीट भी कर दिया है। लेकिन ये नहीं बता सके कि भूख के कारण जिनका पेट और पीठ एक हो चुका है, उनके लिए मनरेगा की मजदूरी में एक रुपए की बढ़ोतरी से कैसे अच्छे दिन लाए जा सकते हैं...
दिल्ली आया तो पहली बार देखा कि एक माँ सिर्फ भरपेट भोजन के लिए पेट पर अपने बच्चे और पीठ पर इंट या बालू लादे हुए कई मंजिल चढ़ती है। मजदूरी तो पहले भी मैं देखा था लेकिन मजबूरी की आग में एक माँ को मजदूर बनते दिल्ली ने ही दिखाया। ऐसा नहीं कि इतनी मेहनत के बाद भी इन्हें इनका वाजिब हक मिल पा रहा है। तमाम कागजी कानूनों के इस दौर में भी ये धन्ना सेठों के रहमोकरम पर 'पल' रहे हैं। रात 8 बजे के बाद आपको किसी भी महानगर या बड़े शहर के शोर से बेफिक्र फुटपाथों पर सैकड़ों की संख्या में एक साथ सोए हुए लोग दिख जाएंगे जो केवल पैसों के किए अपना आशियाना छोड़कर घर से सैकड़ों किमी दूर खुले आसमान के नीचे सोने को मजबूर हैं। यह वह दुःख है जिसे वो नहीं जान सकता जो एसी कमरों और महंगी गाड़ियों में बैठ कर रोजमर्रा की जरुरतो से मरहूम अपनी जन्मस्थली को भूल जाता है, लेकिन वो जान सकता है जो सैकड़ो किलोमीटर दूर अपने परिवार की खुशी के लिए किसी और की सौ मंजिला इमारत को अंतिम रूप देने में अपनी हड्डियाँ गला रहा है। हर राज्य की नई सरकार इस वादे के साथ सता पर काबिज होती है कि वे प्रवास रोकेंगे। लेकिन बिहार, झारखंड, यूपी, कश्मीर, आसाम और अन्य कई राज्यों से महानगरों की ओर जाने वाली ट्रेनों की भारी भीड़ हर दिन उन हुक्मरानों से सवाल करती दिखती है जो आजादी के लगभग 7 दशक बाद भी भारत को इस तरह नहीं बना सकें जहाँ एक आदमी अपनी जन्मस्थली पर ही अपने परिवार के साथ पूरी जिन्दगी बसर कर सके। आखिर कब तक प्रवासी मजदूर अपने परिवार से दूर दिल्ली के कापसहेड़ा, मुम्बई के धारावी और कोलकाता के स्लम एरिया में अभावग्रस्त जिन्दगी जीने को मजबूर रहेंगे? ‘गरीब-किसान-मजदूर’ ये तीन शब्द हैं जो सियासत की शब्दावली में सबसे पहले आते हैं लेकिन अफ़सोस कि सत्ता आज तक इन्हें इनका वाजिब हक़ नहीं दे सकी और ये आज भी उसी जगह पर खड़े हैं जहाँ 7 दशक साल पहले एक बूढ़ा फ़कीर इन्हें छोड़कर गया था। आंकड़ो की ओट में सियासी बिसात बिछाने वाले आखिर यह कब समझेंगे कि मजदूर के शरीर में केवल वोटिंग मशीन पर बटन दबाने वाला अंगूठा ही नहीं वरन वह पूरा शरीर भी है जिससे निकला पसीना जीडीपी की बुनियाद खड़ी खड़ी करता है। किसी ने सच ही कहा है,
'दुनिया बदली
सत्ता बदली
बदले गांव जवार
पर मजदूर का हाल न बदला
आई गई सरकार...।'

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