''जिनकी सेवाएँ
अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
उनको प्रणाम !...''
आम आदमी की आवाज को अपने शब्दों में ढालकर आजीवन सत्ता सियासत और व्यवस्था को आईना दिखाने वाले काव्यकुल के पुरोधा ‘बाबा नागार्जुन’ को उनकी वी जयंती पर उन्ही की इन पंक्तियों के माध्यम से श्रधांजलि. भले ही ये पंक्तियाँ नागार्जुन के कलम से निकली है लेकिन इसकी सार्थकता इस महान कवि के इर्द-गिर्द घुमती भी दिखाई देती है. हमारा दुर्भाग्य है कि इस तथाकथित लोकतंत्र में जनहित की जिस आकांक्षा में नागार्जुन कलम चलाते रहे वह आज भी जनतंत्र की इस धरती से बहुत दूर है. गांधी के नाम पर सियासत कर अपना पेट पालने वाले नामुराद नेताओं के बारे में ‘नागार्जुन ने लिखा भी है :
"गांधी
जी का नाम बेचकर, बतलाओ कब तक खाओगे?
यम को भी दुर्गंध लगेगी, नरक भला कैसे जाओगे?"
भारतवासियों को मिले संवैधानिक अधिकार
पर खुद को ‘साहब’ कहने
वाले एक नेता की शक्तियां हावी होने लगी तब ‘नागार्जुन’
ने लिखा :
''बाल ठाकरे ! बाल
ठाकरे !
कैसे फ़ासिस्टी प्रभुओं की,
गला रहा है दाल ठाकरे ...''
आज जब खुद को कव्यकुल से जोड़ने वाले कई
तथाकथित कवियों का कलम सियासी नारों तक सिमट कर रह गया है इस समय ‘नागार्जुन’ की इन पंक्तियों
का ध्यान आता है जो उस समय की निरंकुश शासन के लिए ललकार साबित हुआ था :
''खड़ी हो गई
चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक...''
जनहित का नाम देकर खुद के हित और
स्वार्थसिद्धि के लिए सियासत का दामन थामने वाले लोगों के वास्तविकता की कलई ‘नागार्जुन’ की इन पंक्तियों
में खुलती है :
''सुखी हैं
चाटुकार
मगर मस्त हैं लबार
जिनके हित दिल्लीगत त्रिविधतापहारी
लहू की फेंके थूक
मरे शूद्र शंबूक
खेले क्रिकेट राम योजना बिहारी
स्वर्ग है पार्लमेण्ट
करता है बहुमत जनहित की चांदमारी।''
उद्देश्य से भटकती सियासत और सामाजिकता
को आईना दिखाने में ‘नागर्जुन’
के योगदान को शब्दों में समेटना सूरज को दीया
दिखाने जैसा है. आज जब कई पन्ने भरकर भी कवि या साहित्यकार अपनी सार्थकता स्पष्ट
नहीं कर पाते हैं, इस समय इस जन क्रांतिकारी कवि की जरुरत महसूस होती है जो एक वाक्य
में ही हालत और निजात दोनों का पर्दाफास कर देता है.
‘होंगे दक्षिण,
होंगे वाम, जनता
को रोटी से काम.’
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