गुरुवार, 18 जून 2015

आपातकाल और आज : कुछ बदला क्या !


एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है,
कल नुमाईश में मिला था चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है.

मौजूदा दौर में आपातकाल की संभावना को लेकर ‘आडवानी’ जी की एक टिपण्णी पर छिड़ी बहस के बीच मुझे ‘दुष्यंत कुमार’ की यह पंक्तियाँ याद आ गयी. आज सवाल यह नहीं है कि आपातकाल की संभावना टटोली जाय, आज समय यह सोचने का है कि क्या बीते चालीस बरसों में देश की राजनीति बदली है ? क्योंकि राजनीतिक हालात ही ‘आपातकाल’ का कारण बनते हैं. दुष्यंत कुमार के इन पंक्तियों की पड़ताल की जाय तो मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक रूप से हम 70 के दशक के बहुत आगे बढ़ पाए हैं. बीते एक दशक से एक ‘गुड़िया की कठपुतली’ के हाथों में ही इस देश की चाबी थी. सत्ता में नहीं लेकिन सियासत में आज भी गुड़िया की महता कायम ही है. सरकार के एक साल पूरा करने के मौके पर मथुरा में इमानदारी का ढोल पीटने वाले प्रधानमंत्री जी की सियासी दुर्गति एक गुड़िया के कारण ही हो रही है. इस मामले में तो आपातकाल के आस-पास का दौर आज की अपेक्षा कुछ ठीक ही कहा जाएगा. क्योंकि व्यक्तिगत मित्रता के आगे शासनात्मक नैतिकता की कुर्बानी दे देने वाली एक मंत्री की रक्षा में पूरा सरकारी तंत्र ढाल बनकर खड़ा है जबकि इस देश ने वह दौर भी देखा है जब एक रेल दुर्घटना के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा फेंक मारा था.
आजादी हमें 40 के दशक में मिली, दुष्यंत कुमार ने यह सच बयां किया 70 के दशक में लेकिन आज आजादी के लगभग 7 दशक बाद भी भारत चिथड़ों से आजाद नहीं हो पाया है. आजादी के समय 2.7 लाख करोड़ जीडीपी वाला इस देश के पास आज 57 लाख करोड़ की जीडीपी है लेकिन इस अनुपात में इस देश से चीथड़े वालों की संख्या कम नहीं हुई. आज भी देश के विभिन्न भागों में लगभग 18 लाख लोग हर दिन बिना छत के सड़कों पर रात गुजारते हैं. ऐसे लोगों की संख्या देश की राजधानी में 47 हजार के लगभग है. सियासत बदल गयी लेकिन हकीकत आज भी बहुत हद तक बदली नहीं है.
लोकतंत्र का कोई एक भाग जो आज सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है तो वह है मीडिया. आपातकाल के समय सबसे ज्यादा दबाया भी मीडिया ही गया और सबसे मुखर विरोध भी मीडिया का ही रहा लेकिन वर्तमान समय में देखें तो आपातकाल की भी मुखरता नजर नहीं आती.
इन चालीस सालों में बदला कुछ नहीं सिवाय इसके कि अब पत्रकारिता का रास्ता मिशन से विमुख होकर 'कमिशन' की तरफ मुड़ चला है. संसद की सीढियां उतरते हुए जब एकबार नेहरु लड़खड़ाए और दिनकर जी ने उन्हें गिरने से बचाया था तब नेहरु के धन्यवाद कहने पर दिनकर ने कहा, 'नेहरु जी सियासत के कदम जब जब लड़खड़ाएंगे, अदब उसे सहारा देगा.' लेकिन आज तो हालात इतने बदल चुके हैं कि सियासत के कदम के साथ साथ आवाज भी लड़खड़ा जाती है लेकिन कलम उस सच को आम करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. वास्तविकता की पड़ताल करें तो हकीकत यही है कि अब 'अकबर इलाहाबादी' के इन शब्दों की सार्थकता समाप्ति की ओर बढ़ती दिख रही है कि, ‘जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो.’ क्या यह इस चौथे खम्भे के लिए शुभ संकेत है कि जिस शख्स को एक साल से ज्यादा हो गए इस देश के वजीरे आला की कुर्सी पर बैठे उसने यहाँ की मीडिया से सार्वजनिक रूप से बात करना मुनासिब नहीं समझा. यह बात और है कि प्रधानमंत्री जी रात के अँधेरे में मीडिया घरानों के मालिको के साथ मीटिंग करते हैं लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि उन मीडिया घरानों के मालिकों में से कितने लोग सीधे तौर पर पत्रकारिता से जुड़े हैं ?

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