सोमवार, 12 मई 2014

माँ के लिए एक दिन ही क्यों-

पिछले कई दिनों से अखबार, रेडियो, और टीवी 11 मई को ‘मदर्स डे’ पर अपने खास अंक या खास कार्यक्रम के लिए पाठको और दर्शको को तैयार कर रहे हैं| लेकिन एक बात समझ से परे है कि गर्भधारण के बाद से परलोक सिधारने तक एक पल के लिए भी बेटे को नहीं बिसारने वाली माँ के लिए एक दिन ही क्यों? परिवार और सभ्यता संस्कृति के लिए जाने जाने वाले इस देश में कहीं यह उस पश्चिमी सभ्यता के घुसपैठ की कोशिश तो नहीं है जहाँ थोड़ी सी समझ पाए बच्चे अपने माँ बाप से दूर अपनी जिन्दगी खुद के हाथो संवारने की जद्दोजहद में लग जाते हैं, और माँ को उनकी अहमियत का अहसास कराने के लिए एक ख़ास दिन मुक़र्रर कर दिया जाता है| कुछ दिन पहले आई यह खबर उसी अलगाव का नतीजा है कि, ‘अमेरिका में एक वृद्धाश्रम के मैनेजर को केवल इसलिए अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा क्योकि उसने एक धनी बेटे की नींद में खलन डालते हुए आधी रात फोन करके उसके माँ की मृत्यु की सुचना दी| भारत के लिए यह खबर अचंभित करने वाली है, पर शायद यही सच है आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल इस 21 वी सदी का| वैश्वीकरण के रास्ते इस खबर को भारत की वास्तविकता बनने में भी जयादा समय नहीं लगने वाला है| क्योकि इसका बीजारोपण हो चुका है| माँ-बाप में भगवान का अक्स देखने वाली इस धरती को भी अब वृद्धाश्रम की हकीकत से रूबरू होना पड़ रहा है|
यह उस धरती की हकीकत है जहाँ चंगेज खां जैसे खूनी शासक के दरबार में एक माँ पहुँचती है और उससे सीधे सवाल करती है कि ‘तेरी फ़ौज में मेरा बेटा काम करता था मै उसे लेने आई हूँ’ और चंगेज खां हैरान हो जाता है, कि माँ तू आई कैसे रास्ते में पर्वत और समुद्र पड़े होंगे तूने उन्हें पार कैसे किया? तो माँ का जवाब आता है कि मैंने समुद्र और पर्वत से रास्ता मांगी कि मुझे रास्ता दो मै माँ हूँ और उन्होंने मुझे रास्ता दे दिया| लेकिन आज समय ऐसा आ गया है कि,
उसको नहीं देखा पहले कभी पर इसकी जरुरत क्या होगी,
ए माँ तेरी सूरत से अलग भगवान् की सूरत क्या होगी?’’
सरीके गानों में भी लोग संजीदगी, संवेदना और मार्मिकता की जगह मस्ती ढूंढते है| आज ‘मदर्स डे’ है| गिफ्ट आइटम की दुकानों पर भारी भीड़ लगेगी, कल के अखबार के पन्ने बड़े सितारों के द्वारा उनकी माँ को दिए जाने वाले सरप्राईज गिफ्ट की खबरों से भरे रहेंगे| लकिन उन माओं को हमेशा की तरह आज भी उस सरप्राइज का इन्तजार रहेगा कि साथ रहने के बावजूद भी अपनी दुनिया में खो कर अपनी माँ को भूल जाने वाला बेटा आएगा और अपनी माँ के गले लग उसे उसकी अहमियत का अहसास कराएगा| माँ जिन्दगी की वह सच है जिसे हम क्या भगवान भी नहीं झुठला सकता है| अपनी जिन्दगी में उम्र और शोहरत की बुलंदी पर पहुँच चुके मशहूर शायर ‘मुन्नवर राणा’ की यह ख्वाहिस हर बेटे की ख्वाहिस होनी चाहिए कि,
‘’मेरी ख्वाहिस है कि मै फिर से फ़रिश्ता हो जाऊ,
माँ से इस तरह से लिपट जाऊ कि बच्चा हो जाऊ’’
वे लोग किस्मत वाले हैं जिन्हें इन पंक्तियों को जीने का सौभाग्य मिला है| वरना हम बदनसीब तो उस समय को याद करते हुए माँ का फोटो देखकर ही खुद को सांत्वना दे देते हैं जब उदास होते ही माँ को फोन आ जाता था| बदकिस्मती का इससे बड़ा नमूना क्या होगा कि ‘मुन्नवर राणा’ साहब की पंक्तियों को भी मै वर्तमान के परिपेक्ष्य में नहीं कह सकता और अतीत के साथ जोड़ने को विवस हूँ कि,
‘’इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती थी,
माँ बहुत गुस्से में होती थी तो रो देती थी|’’

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