‘प्रताप’ ने रुकना
झुकना और बिकना नहीं सीखा है| हिन्दी पत्रकारिता के आधार स्तम्भ और ‘प्रताप
पत्रिका’ के सम्पादक ‘गणेशशंकर विद्यार्थी’ जी पर उग्र और क्रांतिकारी लेख न छापने
के लिए अंगरेजी शासन के द्वारा मुक़दमे और सजा की धमकी दिए जाने के बाद
‘विद्यार्थी’ जी का यही जवाब था कि, ‘प्रताप’ रुकना झुकना और बिकना नहीं जनता|
लेकिन देश को
फिरंगियों के चंगुल से मुक्त कराने में अहम् भूमिका अदा करने के बाद आज इस
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बना ‘मीडिया’ जब कॉर्पोरेट के हाथो की कठपुतली बनता जा
रहा है तो ‘स्वराज अखबार के इस आदर्श वाक्य की सार्थकता पर प्रश्न खड़ा हुआ नजर आता
है कि,
‘’लाख बांधो तुम
हमें जंजीर से,
वक्त पर निकलेंगे
फिर भी तीर से|’’
ऐसे तो अप्रत्यक्ष
रूप से यह बहुत पहले से हो रहा है, ये उस समय भी हुआ था जब ‘मुकेश अम्बानी’ के
बेटे की कार से दो लोगो मौत हो गई थी और यह खबर किसी भी न्यूज चैनल पर ब्रेकिंग
न्यूज में ना ही फ्लैश करती नजर आई थी और ना ही किसी समाचार पत्र की सुर्खी बनी|
इसका कारण था ‘रिलायंस
इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआइएल) के पास इंफोटेल के 95 प्रतिशत शेयर हैं|
इंफोटेल एक टेलीविजन संकाय (कंजोर्टियम) है जिसका 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों पर नियंत्रण है| इनमें नेटवर्क—18 के सभी चैनल (सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन लाइव, सीएनबीसी,आइबीएन लोकमत और लगभग हर क्षेत्रीय भाषा का ईटीवी) शामिल है|’ लेकिन जब मै यह खबर सुना कि देश के
एक बड़े मीडिया समूह ‘नेटवर्क 18’ को अम्बानी ने अब प्रत्यक्ष रूप से खरीद लिया है
तो वरिष्ठ पत्रकार ‘अखिलेश मिश्र’ जी की यह बातें याद आ गईं जो कुछ दिनों पहले मैं
उनके द्वारा लिखित एक किताब में पढ़ा था, ‘’हम पत्रकारों की नियति कुते की होती है,
अब यह हमें तय करना है कि सड़को पर भौंक कर जनता को सजग करने वाला कुता बनना है या
बंद गाड़ी में मैडम की गोद में बैठने वाला कुता|’’
वैसे भारत में
‘बनारसी दास चतुर्वेदी जी’ जैसे पत्रकार भी हुए हैं जिन्होंने अपने संपादकत्व में
प्रकाशित समाचार पत्र के मालिक ‘रामानंद चक्रवर्ती जी’ के खिलाफ उनके ही अखबार में
ही लिख दिया था जब चक्रवर्ती जी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के सभापति चुने गए थे|
लेकिन उस समय के समाचारपत्रों के मालिक भी प्रसिद्धि या पैसा कमाने के लिए नहीं
वरन देश सेवा के लिए इस पुण्य के काम में आते थे| कहा जाता है जब ‘चक्रवर्ती जी’
ने ‘चतुर्वेदी जी’ से पूछा कि मेरे सभापति बनने का समाचार किसी अखबार में प्रकाशित
हुआ है या नहीं, तो चतुर्वेदी जी ने अपना ही अखबार उन्हें पकड़ा दिया जिसे पढ़कर वे
‘मुस्कुराए’ बिना नहीं रह सके|
एक वह समय था जब
‘स्वदेश’ अखबार में संपादक के लिए निकला विज्ञापन कुछ इस तरह का था, ‘’चाहिए
स्वराज के लिए सम्पादक| वेतन दो सुखी रोटीयां, एक ग्लास ठंढा पानी और हर सम्पादकीय
के लिए दस साल जेल|’’ लेकिन इसके बाद भी ‘स्वराज’ का सम्पादक बनने के लिए योग्य
उम्मीदवारों की भीड़ जमा हो गयी थी| और एक यह समय है जहाँ ‘चेहरा, टाई और कोट-पैंट’
की क्वालिटी ही तय करने के लिए पर्याप्त है कि आपको देखते रहने के लिए कितने लोग
चैनल नहीं बदलेंगे| सच में यही तो आज के मीडिया का प्रमुख ध्येय हो कर रह गया है
कि किसकी टीआरपी कितनी आती है| हाँ मै केवल ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ की बात कर रहा
हूँ क्योकि जहाँ तक मेरा अनुभव है आज कल ठेके पर पत्रकार पैदा कर रहे मीडिया
संस्थानों में (कुछ अपवाद भी हैं जो पत्रकारिता के मूल उद्देश्य की पूर्ति कर रहे
हैं) पढने वाले बच्चे आज कल केवल टीवी पर दिखने का उद्देश्य लेकर कभी देश सेवा का
माध्यम रहे इस पेशे में आना चाहते हैं जो आज व्यवसाय बन कर रह गया है|
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