शनिवार, 21 अप्रैल 2018

सरकार ने अपना काम कर दिया अब समाज की बारी है

निर्भया कांड के बाद, बलात्कार और यौन शोषण से सम्बंधित कानून को कड़ा बनाने का सुझाव देने के लिए तत्कालीन सरकार द्वारा गठित कमिटी के अध्यक्ष जस्टिस जेएस वर्मा ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कहा था कि 'ऐसे अपराध कानून की कमी की वजह से नहीं, बल्कि सुशासन की कमी के कारण होते हैं।' अगर हम 2013 तक और उसके बाद के वर्षों में हुए बलात्कार की घटनाओं की तुलना करें तो जस्टिस वर्मा की बात सही लगती है। 2013 के पहले पॉक्सो एक्ट नहीं था। 2012 में देशभर में 8886 और 2013 में 8511 बलात्कार की घटनाएं सामने आईं। लेकिन 2013 में पॉक्सो बनने के बाद से हम देखें तो 2014, 15 और 16 में क्रमशः 36735, 34651 और 38847 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। बलात्कार के मामले में अंतिम फांसी 2004 में धनंजय चटर्जी को हुई थी, उस समय पॉक्सो नहीं था, लेकिन कानून ने अपना काम किया। कुछ सकारात्मक संशोधनों को छोड़ दें तो कई बार संविधान में बदलाव की जरूरत ही नहीं पड़ती। नए कानून या नियम की जरूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि पुराने वाले को कमजोर कर दिया जाता है, अगर पुराने कानूनों का सख्ती से पालन हो, तो नए की जरूरत ही न पड़े और ऐसा आज से नहीं हो रहा है, वर्षों से राजनीतिक दल और सियासदान अपने लिए और अपनों के लिए कानून को तोड़ते-मोड़ते रहे हैं। उन्नाव और कठुआ में क्या हुआ और हो रहा है, यह तो इसकी बानगी है ही इससे पहले भी ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं। 1996 के सूर्यनेल्ली बलात्कार मामले की पीड़िता आज भी उस दर्द और पीड़ा के साथ जी रही हैं। यह घटना थी, 16 बरस की स्कूली छात्रा को अगवा कर 40 दिनों तक 37 लोगों द्वारा बलात्कार करने की। इसमें कांग्रेस नेता पीजे कुरियन का नाम उछला और उसके बाद सिवाय राजनीति के कुछ नहीं हुआ। घटना के 9 साल बाद केरल हाईकोर्ट ने मुख्य आरोपी के अलावा सभी को बरी कर दिया। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट गया और कुछ को सजा हुई। 1996 में ही दिल्ली में लौ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शिनी मट्टू की उसके एक साथी ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी। लड़का जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन आईजी का बेटा था। बाप के पद और पैरवी की ताकत बेटे के अपराध पर भारी पड़ी और विडम्बना देखिए कि जब यह केस हाईकोर्ट पहुंचा, तब तक वो आरोपी लड़का उसी कोर्ट में वकालत कर रहा था। भंवरी देवी बलात्कार मामले के बारे में कौन नहीं जानता। उसके आरोपी तो न नेता थे और न ही पुलिस के बड़े अधिकारी लेकिन उनकी दबंगई ने इस मामले पर सुनवाई कर रहे ट्रायल कोर्ट के पांच जजों का तबादला करा दिया था।
ऐसे उदाहरण इतने हैं कि पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि यहां सुशासन का राज क्यों नहीं देखने को मिला? प्रधानमंत्री जी ने लंदन में इस मामले पर कहा कि 'बलात्कार तो बलात्कार होता है, और उसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए', एकदम सही बात है, नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन किया तो जा रहा है, ऐसा नहीं किया गया होता तो उन्नाव मामले में आरोपी की गिरफ्तारी में 7 महीने का समय नहीं लगता और ऐसा नहीं किया गया होता तो कठुआ मामले के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा नहीं निकलती, वे दोषी सिद्ध होते हैं या बाइज्जत बरी ये अलग मुद्दा है, अभी बात सुशासन की है... और जब बात सुशासन की चलती है, तो चर्चा यह भी होती है कि कौन कितना पाक-साफ है। एडीआर का डाटा है कि वर्तमान में हमारे 48 सांसद-विधायक यौन उत्पीड़न के आरोपी हैं और अपने 12 सांसदों-विधायकों के साथ भाजपा इनमें शीर्ष पर है। वही भाजपा जिसके सियासी माई-बाप, हमारे प्रधानमंत्री जी ने लंदन में कहा कि 'जो व्यक्ति ये अपराध कर रहा है, वह भी किसी का बेटा है।' लेकिन अफ़सोस कि ऐसे बिगड़ैल बेटे हर दलों में हैं और इन्हें सुधारने के बजाय हमारी पार्टियां इन्हें चारित्रिक प्रमाण पत्र दे देती हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह सिलसिला थम गया, तमिलनाडु के महामहिम राज्यपाल ने सवाल पूछने वाली एक महिला पत्रकार का गाल छुआ, हालांकि उन्होंने बाद में स्पष्ट किया कि उन्होंने पोती समझकर ऐसा किया था, बात आई-गई हो गई, लेकिन राज्यपाल जी के बचाव में उतरे एक वरीय भाजपा नेता ने फेसबुक पोस्ट में यह लिख दिया कि 'बड़े लोगों के साथ सोए बिना कोई लड़की रिपोर्टर या न्यूज रीडर नहीं बन सकती।'
इन सवालों का तीर भाजपा पर ज्यादातर इसलिए है क्योंकि भाजपा के पास अभी सबसे ज्यादा सांसद-विधायक हैं और भाजपा वाले ही हमारे प्रधानमंत्री जी ने पिछले दिनों कहा कि इन मुद्दों पर सियासत नहीं होनी चाहिए। खैर, बड़ी बात यह है कि हमारी सरकार ने सराहनीय कदम उठाते हुए पॉक्सो में संशोधन कर दिया है और ऐसा समय की मांग थी। लेकिन मुझे कई बार यह बहुत छोटी बात लगती है, ऐसा क्यों है इसे मैंने ऊपर में उदाहरण देकर समझा दिया है। बड़ी बात यह है कि कानून तो बन गया लेकिन सुशासन की संभावना पहले जैसी ही मद्धम है। इसलिए अब समाज को अपना काम करना है। एक आदमी जो 8 महीने और एक साल की बच्ची की मासूमियत में भी हवस का सामान ढूंढ सकता है, उसे उस समय फांसी की सजा वाले अंजाम का ख्याल भी नहीं आएगा। जरूरत इस बात की है कि समाज में संवेदना और समझ का संचार किया जाय। इंसान को इंसान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा की जाय। पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्तों की मर्यादा और आत्मीयता का स्थानांतरण हो, तभी ऐसी घटनाओं पर लगाम लग सकती है, वरना कड़े से कड़े कानून बनते रहेंगे और ऐसे अपराध किसी की जिंदगी बर्बाद कर उसे आंकड़ों में समेटते रहेंगे...

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