शनिवार, 1 सितंबर 2018

हिंदी साहित्य के 'दुष्यंत'

मैं जब भी दिल्ली की दौलत द्वारा दुत्कारे गए दबे कुचलों को चकाचौंध से दूर फुटपाथ के अंधेरों में अपनी बदरंग दुनिया को दुरुस्त करने की असफल कोशिश करते देखता हूं तो अनायास ही ये पंक्तियां याद आ जाती हैं- 

'...न हो क़मीज़ तो पांव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए.'

आधुनिकता के साथ कदमताल करते अलग-अलग सफ़र के दो राही के हमसफ़र बनने की जद्दोजहद जब भी विरासत के आडंबरों वाली थोथी आना के आगे दम तोड़ देती है, तो जी करता है कि जोर से चिल्लाऊं- 

'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं...'

शाइनिंग इंडिया के सपनों के महज नारों तक सिमटने की बात हो, भारत निर्माण के दावों के बस फाइलों में दफन होने की, या फिर अच्छे दिनों के वादों के जुमला बन जाने की... वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे हर पांच साल बाद इस दुआ को मजबूर कर देते हैं- 

'...हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.'

बॉलीवुड यानि मायानगरी मुम्बई को पहला ऑस्कर देने वाला धारावी हो या फिर अपने पसीने के ईंधन से दिल्ली की चकाचौंध बढ़ाने वालों को अपने अंधेरे कबूतरखानों में छुपाए राजधानी का कापसहेड़ा... इनकी दयनीय दशा अपनी अभिव्यक्ति के लिए खुद-ब-खुद इन पंक्तियों का गंतव्य तय कर लेती हैं- 

'कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए...'

शायद ही कोई हो, जिसने किसी अपने को, उसकी असफ़लता के बाद उपजी हताशा और निराशा को दूर करने और मार्गदर्शित करने के लिए इन पंक्तियों का सहारा न लिया हो-

'कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.'

1977 में हुए आज़ादी के बाद के दूसरे सबसे बड़े जनांदोलन के बाद 2011 में जिस राजनीतिक बदलाव की बयार बही और जिसका असर दिल्ली से होते हुए कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक महसूस किया गया, उसका सूत्र वाक्य यही था और आज भी हर सियासी वायदों का सारथी यही पंक्तियां हैं- 

'सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए'

सत्ता के मनमाफ़िक इतिहास न लिखने वाले लेखकों की तौहीन हो, सरकार के कसीदे न पढ़ने वाले कवियों की बेइज्जती, या फिर चाटुकारिता को तैयार न होने वाले पत्रकारों के पर कतरने की बात... हर ऐसी घटना इस शेर की याद दिलाती है-

'तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए...'

वो चाहे एक गूंगी गुड़िया द्वारा अपने को सत्ता की महारानी समझने की गफ़लत हो, या फिर वर्तमान समय के साहेब द्वारा खुद को खुदा समझने की भूल... एक आम जनता के एक छोटे शरीर की एक छोटी उंगली के एक छोटे हिस्से भर की हैसियत वाले सेवक जब भी खुद को देश से ऊपर समझने लगते हैं, ये पंक्तियां उन्हें औकात दिखाती हैं- 

'...तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं.'

'मैं यहां से 1 रुपए भेजता हूं तो गांव तक 15 पैसे ही पहुंचते हैं' 3 दशक बीत गए, जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर द्वारा यह दुर्भाग्यपूर्ण स्वीकारोक्ति हुई थी, पर अफ़सोस आज भी हकीकत ने वहां से कुछ ज्यादा दूरी तय नहीं की, हालांकि अवाम अब खुलकर कहती है-

'यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा...'

हमारी रोजमर्रा की अभिव्यक्ति को स्वर दे रही इन जैसी अनगिनत पंक्तियों के लेखक की आज जयंती है। मसान फ़िल्म में प्रेमिका के रेल सी गुजरने पर प्रेमी के थरथराने की प्रेमाभिव्यक्ति भले आपको फिल्मी लगे लेकिन यह उस मूल गजल लेखक के जीवन में प्रेम की पटरियों के उखड़ने का दर्द है, जो अपने पिता की अना के आगे अपनी मुहब्बत को हार गया और फिर लिखा- 
'मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितने क़रीब पाता हूं,
कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं'
करीब साढ़े चार दशक की उम्र बहुत बड़ी नहीं होती, कई शख्सियतों को तो दुनिया इस उम्र के बाद ही जानती है, लेकिन इतिहास के रंगमंच पर कुछ ऐसे किरदार भी आए जिनकी अदाकारी का पटाक्षेप बहुत जल्द हो गया, लेकिन उनके कौशल पर आज भी तालियां बज रही हैं और उनके शब्द आज भी असंख्य लोगों की अभिव्यक्ति के काम आ रहे हैं। हिंदी साहित्य और इस समाज को यह दुर्भाग्य सालता रहेगा कि इसे दुष्यंत कुमार के साथ का सौभाग्य बहुत कम समय तक ही मिला...

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