शनिवार, 27 जुलाई 2013

भूखे पेट पर सियासत-


पिछले कई दिनों से भर पेट भोजन की किमत को लेकर जिस अराजक बयाबाजी का दौर चल रहा है, वह उन 270 लाख जनता की भूख का मजाक है जिनमें से अधिकतर पुरे दिन जी-तोड़ मेह्नत करने के बाजु अपने और अपने परिवार की रागन शांत नही कर पाते| यह नजायज फायदा है उन गरीबो की लोकतंत्र में टुट विश्वास का, जिसके बल पर वे अपना जन प्रतिनिधि चुनते है| चुनावो के समय किए गए वे वादो जिनमें ये जन प्रतिनिधि ख़ुद को पा-साफ और दीन-हिन का मददगा साबित करते हैं, के बल पर भोली-भाली जनता को अपने भंवर जा में फंसा लेते है| लेकिन सता पाने के बा उन्ही पा-साफ और गरीबो के मसिहा सरीखे बहुरुपियो में से कोई राज बब्बर पैदा होता है, जो मुम्बई जैसे शहर में 12 रुये में भर पेट भोजन की उपलब्ध्ता बताता है| उन्ही मानीयो की भीड़ से कोइ रसीद महमूद निकलता है जिसे एक गरीब के पेट भरने की कीमत 5 रुपये नजर ती है, तो कोई फारूक अब्दुल्ला का नकाब ढे रहता है जो गरीबों के जठरागन की किमत सिर्फ़ 1 रुपया लगता है|
                    आज जब किसी समाचार पत्र का संपादक बढ़ती महंगा को देख् कर देश के माध्यम वर्ग कि ओर से यह लिखता है, ''कर ना सके हम प्याज का सौदा किमत ही कुछ ऐसी थी''| तब हमे उन गरीबों के बारे में सोचना चाहिए कि इस कमर तोड़ महंगा ने उनकी थाली से क्या-क्या नदारद कर दिया होगा| जगदीश गुप्त जी की पंक्तियाँ है,
कौन खाई है कि जिसको पाती है किमते, उम्र को तेज़ाब बन कर चाती है किमते, आदमी को पेट का चूहा बनाकर रात दिन, नोचती है कोचती है काटती है किमते| भारत जैसे असमानता वाले देश में जहाँ कोई खाते-खाते मरता है तो कोई बिन खा मरता है| गुप्त जी कि ये पंक्तियां उस आम आदमी को इंगित करती है जो बिन खा मरता है| 1991 से लेकर आज तक भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाज़ार के हाथों निलाम करने वाले महान अर्थशास्त्री इस समय कहाँ है, जब भूखे पेट पर सियासत हो रही है| कहाँ है वह कथित युवा हृदय सम्राट जो केवल चुनावो के समय गरीबों की झोपड़ी का रुख करते है, और सारे न्यूज चैनल तथा समाचार पत्रों के पन्ने उनके  महिमामंडन में लग जाते है कि युवराज ने गरीब की झोपड़ी में खाना खाया| इस कमर तोड़ महंगा के दौर में अब समय है उन गरीबों का, अब उन्हे इस युवराज के घर का रुख कर उनसे कहना चाहिए, बाबुजी मेरे घर तो खा चुके अब मुझे अपने घर खीला| हमारे मानीयो के कई दरवाजों के घर में एक दरवाजा भी ऐसा नही है जहाँ से एक गरीब अंदर जा सके| भूख से उठी पीड़ा से तड़प कर एक गरीब दम तोड़ देता है, लेकिन इनके दरवाजे पर लगे लाल बती वाला एसी गाड़ी उसके काम नही आता| चुनावो के समय अपने उड़नखटोलो से सुदूर गाँवों में जाकर भाषणबाजी करने वाले नेताओं को इस भ्रम में नही रहना चाहिये, कि वहाँ उमड़ी जनता उनके च्छे कर्मो का प्रतिफल है| उस भीड़ के अधिकतर लोग ऐसे होते है, जो सिर्फ़ उड़नखटोलो का दर्शन करने आते है| क्योकि इस सरकार ने उन्हें इस कदर बनाया ही कहाँ कि वे अपनी भूख से ध्यान हटा कर शिक्षा पर ध्यान लगाये, और इन नेताओं के बातों को समझने की समझ पैदा करें| आपदा और महामारी के समय हवाई दौरा करने वाले और काले शीशो वाली गाड़ियों में बैठ कर दौरा करने वाले नेता ये क्या जाने कि राजमार्ग से 10 किमी निचे उतर कर देखने पर भारत आज भी वहीं नजर आता है जहाँ 65 साल पहले एक फ़कीर महात्मा गाँधी उसे छोड़ कर गया था| गरीबो के भूख के मजाक का फायदा उठाकर अगर कोई भारत विरोधी तातें इन निरीहों  के दिमाग में बगावत का पैग़ाम और हाथों में बंदूक थमा दे तो ये कतई इनका दोष नही होगा|

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