मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

सेक्युलरिज्म: संविधान से समाज तक...

हमारे यहां एक कहावत कही जाती है कि 'अनपढ़ ठीक, मने कुपढ़ ना ठीक', मतलब कि जो कुछ भी नहीं पढ़ा हो, उसे हम कोई भी बात बेहतर तरीके से बता-समझा सकते हैं, लेकिन जिसकी पढ़ाई में ही खोट हो उसे समझाएं कुछ तो समझेगा कुछ और। हाल के दिनों में ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिले। जो 2 महीने पहले तक पद्मावती का नाम नहीं जानते थे, वे भी पद्मावती की इज्जत की रक्षा को रण में उतर गए, बिना जाने-समझे कि जो मुद्दा सामने है, उससे पद्मावती की अस्मिता खतरे में है भी या नहीं। कहने का मतलब यह है कि आदमी जिससे परिचित नहीं होता है, या जिसे जाना-समझा नहीं होता है, उसे 'धारणा' के जरिए समझता है, क्योंकि वो असलियत से कोसो दूर होता है। बाकी मामलों में तो इस कुपढ़ता से ज्यादा नुक़सान नहीं होता, लेकिन बात जब संविधान की होती है, तो यह हानिकारक प्रतीत होता है। राह चलते आम लोग या ट्रेन-बस में सफर कर रहे सियासी विशेषज्ञ टाइप दिखने वाले लोग जब संविधान को कोसें तो समझ में आता है, क्योंकि उनका कोसना संविधान की सार्थकता पर सवाल होता है, लेकिन जब केंद्र सरकार का कोई मंत्री ही संविधान बदलने की बात करने लगे, तो इसे क्या कहेंगे? 
मंत्री जी को 'सेक्युलरिज्म' से दिक्कत है।  दरअसल, सेक्युलरिज्म की आड़ में उन्हें दिक्कत एक 'धर्म विशेष' से है और उस दिक्कत की जो बुनियाद है, वो उनकी नजर में यह है कि वो 'धर्म विशेष' भारत विरोधी कार्य करता है, उस 'धर्म विशेष' के लोग दंगों में संलिप्त होते हैं, उस 'धर्म विशेष' के लोग धार्मिक मुद्दे पर विभाजनकारी षड्यंत्र करते हैं। शायद मंत्री जी इसी का हल तलाश रहे हैं, लेकिन उनकी हालत शायद मृग मरीचिका वाली हो गई है, समाधान पास में होते हुए भी वे सार्वजनिक मंचों से अपनी समस्या की 'बोली' लगा रहे हैं। मैंने इसीलिए लिखा है कि मोदी जी को अपने सभी मंत्रियों को संविधान पढ़ाना चाहिए, अगर इस मंत्री जी ने संविधान पढ़ी होती, तो पता होता कि धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास और भाषा आदि के नाम पर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों को सबक सिखाने के लिए संविधान में धारा-153(A) की व्यवस्था है, किसी धर्म विशेष के धार्मिक स्थानों को अपमानित करने के आरोपियों के लिए संविधान ने हमें धारा-295 दिया गया है, दंगों के आरोपियों के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने धारा-147 की व्यवस्था की है, यहां तक कि किसी की शांति में विध्न-बाधा उत्पन्न करने वालों को सबक सिखाने के लिए भी संविधान में दिए गए धारा-504 के तहत पुलिस मुकदमा दायर करती है। अब सोचने वाली बात यह है कि इतना सब होने के बावजूद मंत्री जी की समस्या का समाधान क्यों नहीं होता, जबकि वे स्वयं कानून बनाने वाले कुनबे में शामिल हैं और कानून को लागू कराने का अधिकार है उनके पास? इसका जवाब यही है कि दरअसल, यह सब मंत्री जी की समस्या है ही नहीं, इस समस्या का हल्ला मचाकर वे अपनी उस 'समस्या' को ही खत्म करना चाह रहे हैं। उनकी नज़र में समाधान यही होगा कि संविधान से 'सेक्युलरिज्म' को निकाल दिया जाए, लेकिन शायद संविधान के साथ-साथ मंत्री जी समाचार भी नहीं पढ़ते, अब तो नहीं ही पढ़ते हैं, तब भी नहीं पढ़े, जब पढ़ना ज़रूरी होता है और तब भी नहीं पढ़े जब उनकी सियासी सोच को बल देने वाले उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ लोग सरकार चला रहे थे। 
मतलब यह कि मंत्री जी ने उस समय भी समाचार नहीं पढ़ी थी, जब 1973 में 'केसवनंदा भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल' मामले में सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की खंडपीठ ने बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा था कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है और कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है। पता नहीं, मंत्री जी यह जानते भी हैं या नहीं कि 'सेक्युलरिज्म' भारतीय संविधान की 'मूल भावना' है, जिस 'सेक्युलरिज्म' शब्द को 1976 में संशोधन कर संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया, वो उसी पंथनिरपेक्षता का परिचायक है, जिसका जिक्र संविधान में पहले से है। मंत्री जी की ही पार्टी के तत्कालीन गृह मंत्री गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए बनी कमेटी को लेकर उठे सवालों का जवाब देते हुए कहा था कि 'सेक्युलरिज़्म भारत की संस्कृति में है और इसे हटाया नहीं जा सकता।' हालांकि मंत्री जी की पार्टी में अभी आडवाणी जी अप्रासंगिक हो गए हैं, इसलिए एक और उदाहरण देते हैं। भाजपा के संकट मोचक कहे जाने वाले हमारे उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने जी ने तो अभी हाल ही में कहा था कि 'सेक्युलरिज़्म हमारे डीएनए में है।' तो क्या मंत्री जी भारतीय संविधान की मूल भावना, हमारी संस्कृति और हमारे डीएनए के बदलना चाहते हैं...? क्या मंत्री जी हमारे गांव से शहर जाते समय रास्ते में पड़ने वाले बरगद के पेड़ को गिरा देंगे, जहां हिन्दू-मुस्लिम सभी धूप-बरसात से बचने के लिए एकसाथ बैठते हैं? क्या मंत्री जी उस बरगद के नीचे वाले चापाकल को भी उखड़वा देंगे जो पानी पिलाने में हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं करता? क्या मंत्री जी उस चापाकल में जंजीर से बंधे उस ग्लास को भी फोड़ देंगे, जिससे पानी पीते हुए मैंने कभी नहीं सोचा कि मुझसे पहले शायद किसी मुस्लिम ने इससे पानी पी होगी? क्या मंत्री जी हमारी सामाजिकता से भी सेक्युलरिज्म को निकाल फेकेंगे, ताकि मेरे बच्चे मेरे गांव के अमीन चाचा को 'बाबा' नहीं बोल सकें...? 

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

भंवर में फंसी सियासी नैया के नए खेवैया

विरासत में मिली हर चीज हर किसी को अच्छी नहीं लगती खासकर राजनीति, वह भी तब, जब परिवार मूल रूप से सियासी हो और नई पीढ़ी आधुनिकता की गोद में चिपक कर बैठी हो। लेकिन राजनीति से दूराव की इस व्यक्तिगत मज़बूरी के बाद बावजूद अपने परिवार और पार्टी के लिए कोई निजी नापसंदगी को गौण कर दे और सियासत की बारीकियां सीखते हुए राजनेता बनने की राह पर चलने को तैयार हो जाए, तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। कुछ कड़वे अनुभव या प्रशंसक और सियासी नजरिए से शायद हमें कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुखद लगे, लेकिन एक भारतीय के नाते इस सबसे पुरानी पार्टी को खत्म होते देखना दुखद है। बहरहाल, राजनीतिक और कूटनीतिक चालबाजी से दूर सीधे साधे राहुल गांधी पर बीते कुछ सालों में जिस तरह से सियासी रंग चढ़ा है वह इस भारतीय लोकतंत्र के लिए सुखद है, जहां विपक्ष की एक महती भूमिका होती है। इस सच को भले ही इस दुर्भाग्य के साथ स्वीकार करना पड़े कि राहुल गांधी परिवारवाद की देन हैं लेकिन स्वीकार तो करना पड़ेगा, क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं। सियासत बदलने का दावा करने वाली भाजपा भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेर नहीं सकती क्योंकि न सिर्फ उसके अपने सहयोगी दल 'युवराजों' के हाथों में हैं, बल्कि खुद भाजपा में भी परिवारवाद फल-फूल रहा है। इस मुद्दे पर भाजपा का दोतरफा रवैया हाल की एक घटना से परिलक्षित होता है। 4 दिसम्बर को राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद के लिए नॉमिनेशन करने के बाद जब भाजपा का पूरा कुनबा कांग्रेस को कोस रहा था, उससे ठीक एक दिन पहले महबूबा मुफ्ती लगातार छठी बार पीडीपी की अध्यक्ष चुनी गईं और भाजपा के एक बड़े नेता ने बेहद सरगर्मी के साथ उन्हें बधाई दिया। वहां पर भाजपा के लिए वंशवाद का मुद्दा गौण हो गया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पीछे का एकमात्र कारण यही है कि वे नेहरू-गांधी परिवार के वारिस हैं। लेकिन इस आधार पर हम उन्हें तब तक ख़ारिज नहीं कर सकते, जब तक हमारे सामने वंशवाद और परिवारवाद मुक्त पार्टी का विकल्प मौजूद नहीं होता।

11 दिसम्बर को जिस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के रिटर्निंग अफसर मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने यह ऐलान किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए हैं, उस वक्त राहुल गुजरात के बनासकांटा में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे। उस रैली में राहुल की बोलने की शैली और दर्शकों से खुद को जोड़ने का अंदाज यह साबित कर रहा था कि 2017 के राहुल गांधी 2014 के राहुल गांधी से ज्यादा प्रभावी और परिपक्व हैं। गुजरात के चुनावी भाषणों में राहुल के इन शब्दों ने स्वस्थ सियासी परंपरा का संकेत दिया है कि 'वे कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, लेकिन हम भाजपा मुक्त भारत के बारे में नहीं सोच सकते। हम चाहते हैं कि वे भी रहें और हम भी रहें। जनता तक वे अपनी बात पहुंचाएं और हम अपना पक्ष रखेंगे।' आज कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के बाद अपने पहले भाषण में भी राहुल गांधी ने इस आशय की बात कही। 
सकारात्मक सियासत के साथ-साथ बात चाहे सियासी पैंतरेबाजी की हो या चुनावी जुमलेबाजी की, राहुल गांधी हर मोर्चे पर मोदी के सामने खड़े हो रहे हैं। कांग्रेस के अंदरखाने राहुल के प्रभाव का एक उदाहरण हाल में देखने को मिला, जब प्रधानमंत्री के लिए मणिशंकर अय्यर द्वारा अपशब्द कहे जाने पर खुद राहुल गांधी ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए राहुल गांधी का यह संदेश भी सकारात्मक सियासत का संकेत है कि कोई भी प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल न करे। राहुल गांधी इस मामले में भी बधाई के पात्र हैं कि उनमें अपनी आलोचना और मजाक सहने की क्षमता है। आज सोनिया गांधी ने अपने बेटे की इस क्षमता का बखान भी किया। वर्तमान राजनीति में जबकि बड़े तो बड़े छुटभैये नेता भी अपने विरोध के फेसबुक पोस्ट या ट्वीट पर सामने वाले को कानूनी कठघरे में खड़ा कर देते हैं, उस समय तमाम मजाक के मामले में सांता-बांता से तुलना को भी बर्दास्त करने की राहुल गांधी की क्षमता इस लोकतंत्र में सुखद लगती है। लेकिन उन्हें अब भी बहुत सी सियासी मर्यादाएं सीखनी हैं। जिस तरह ने उन्होंने एक विधेयक की कॉपी फाड़ी या जिस तरह से भरी संसद में ललित मोदी मुद्दे पर घिरी सुषमा स्वराज के अपनत्व को यह कहकर ठेस पहुंचाया कि 'कल सुषमा आंटी आईं और मुझसे कहा कि राहुल बेटे मुझसे नाराज क्यों हो'... अगर राजनीति में खुद को स्थापित करना है तो राहुल गांधी को इस ओछी सियासत से पार पाना होगा। कांग्रेस अब तक 17 अध्यक्ष देख चुकी है और उनमे से 6 नेहरू-गांधी परिवार से ही रहे, लेकिन किसी के भी समय कांग्रेस उतनी कमजोर नहीं हुई, जितनी आज है। कांग्रेस अब तक के अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है और राहुल गांधी को उस व्यक्ति से लोहा लेना है, जिसकी शख्सियत देश की एक बड़ी आबादी के नस-नस में रच-बस गई है। यह देखने वाली बात होगी कि क्या राहुल गांधी भारत के लिए मोदी का विकल्प बन पाते हैं... बहरहाल, उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की बहुत बहुत बधाई...