बुधवार, 21 जनवरी 2015

’49 दिन’ से आगे,,,

वर्तमान समय में दिल्ली की फ़िजा चुनावी रंग में आकंठ डूबी हुई है | आकंठ इसलिए कि सुबह के सैर से लेकर, बस-मेट्रो की बतकही, स्कुल-कॉलेज-ऑफिस से लेकर चाय की दूकान और पार्कों के प्रेमियों से लेकर लाल बत्ती की ट्रैफिक पुलिस, सब अपनी मांगो और उपलब्धियों के आधार पर दिल्ली विधानसभा का चुनावी गणित सुलझाने में लगे हैं | राजनीतिक बहस को समय की बर्बादी समझने वाला युवा वर्ग भी इस बार के चुनाव में दिलचस्पी ले रहा है | दिल्ली मेट्रो, जहाँ हर बोगी में आपको ऐसे जोड़े दिख जाएंगे जो दुनिया के रंजो-गम से बेखबर अपनी ही दुनिया में मशगुल रहते हैं | लेकिन दिल्ली मेट्रो में मेरा दीदार एक ऐसे नज़ारे से हुआ जिससे मुझे लगता है कि उस कवि का सन्देश युवा भारत तक पहुँच चुका है जिसने कभी कहा था, ‘बच्चों तुम तक़दीर हो कल के हिन्दुस्तान के’ |
जेपी आन्दोलन के समय भी युवा जोश उभर कर सामने आया था, लेकिन बाद में वह आत्मस्वार्थसिद्धि की आग में जल कर राख हो गया | लोकपाल के लिए अनशन कर रहे अन्ना हजारे के साथ भी युवक-युवतियों की फ़ौज खड़ी हुई थी लेकिन जब तक ये उस आन्दोलन में अपनी सहभागिता समझ पाते तब तक आन्दोलन ही बिखर गया | माँ-बहनों की सुरक्षा पर जब सवालिया निशान लगा तब भी इस भारत का मुस्तकबिल बिना किसी नेतृत्व के देश के सबसे बड़े दरवाजे पर अपना प्रश्न लेकर गया था, परन्तु जनहित को सियासत के नजरिये से देखने वालो ने उस मुद्दे को भी राजनीति का अखाड़ा बना डाला | कहने का तात्पर्य यह है कि सियासी जमात के साथ खड़े होकर या उस रूप में ढल कर युवा भारत सवा सौ करोड़ भारतीयों के सपनो को साकार करने का रास्ता अख्तियार नहीं कर सकता है | यदि कर सकता तो जेपी के लिए लाठियां खाने वाला लालू यादव चारा घोटाले में जेल नहीं जाता | यदि युवा भागीदारी से ही राजनीतिक परिवर्तन आने वाला होता तो अन्ना हजारे का कुनबा उन राजनीतिक पार्टियों में ही नहीं बंटता जिनके करतूतों के खिलाफ वे जंग छेड़े थे | यदि इंडिया गेट पर लाठियां खा लेने भर से ही बहन-बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाने वाली होती तो आज भी अखबारों के पन्ने महिला उत्पीड़न की ख़बरों से नहीं भरे होते |  
वर्तमान समय के आरोपों-प्रत्यारोपो की राजनीति से तटस्थता और मुद्दों के प्रति जनता को जागृत कर के युवा भारत, हिन्दुस्तान के मुस्तकबिल को संवार सकता है | प्रेमिका की बातों से सहमत नहीं होकर भी सहमती में सर हिलाने वाला एक युवक अगर राजनीतिक मुद्दों पर प्रेमिका की दलीलों को सिरे से नकारता है तो कारण की तह में जाना जरुरी है | नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन पर हाथ में हाथ डाले मेट्रो में चढ़ने वाले युवक-युवती पर लोगों की ध्यान तब जाती है जब दिल्ली चुनाव के ऊपर उनके बहस की शोर यात्रियों की सुविधा के लिए मेट्रो द्वारा सुनाए जाने वाले निर्देशों से ऊँची हो जाते है | दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में युवती की पसंद ‘किरण बेदी’ के ऊपर केजरीवाल को साबित करने के लिए युवक द्वारा दिए गए दलील चलती मेट्रो में ही समर्थक जुटा लेती है | युवक का यह कहना सच में चिंतनीय है कि, ‘’भारतीय राजनीति में ‘अरविन्द केजरीवाल’ अकेला ऐसा नेता है जो अपनी गलती कबूल करता है, और जनता से उसके लिए माफी भी मांगता है | जनता उसे माफ़ नहीं करे यह अलग बात है | अपने-अपने राजनीतिक कुनबे के नेताओं की बदजुबानी को सही ठहरा कर भी ‘नेता’ बने रहने वाले राजनीतिज्ञों की इस रेस में अरविन्द केजरीवाल भले ही पीछे छुट जाय लेकिन अगर भारतीय राजनीति में ‘आप’ नामक पार्टी का उद्भव नहीं हुआ होता तो आज भी आम आदमी ‘घोषणापत्र’ की सार्थकता से मरहूम होता, केवल कहने को ही सही हर राजनीतिक पार्टी भाई-भतीजावाद से किनारा नहीं करती |’’
बहस के इस मोड़ तक मेरा गंतव्य आ चुका था और मुझे मेट्रो से उतरना पड़ा लेकिन मन में ही उस युवक की बाते दोहराते हुए मैं अतीत में पहुँच गया, जब मोबाईल चोरी होने पर  एफआईआर लिखने में आनाकानी करने वाले एक पुलिस इंस्पेक्टर से की गयी बहस में मुझे भी सुनने को मिला था, ‘ज्यादा केजरीवाल मत बन’ | पुलिस इंस्पेक्टर का नाम जान जाने के बाद भी मैं उसको वाजिब जवाब नहीं दे सका क्योंकि ‘दिल्ली में केजरीवाल नहीं था |’

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