‘’इस तरह अगर हम मिलजुलकर आपस में प्यार
बढ़ाएंगे,
तो एक रोज तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जाएंगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल
प्रिय,
मुस्किल है अपना मेल प्रिय ये प्यार नहीं है खेल
प्रिय.’’
किसी कवि का यह डर भले ही मांझी-मोदी मुहब्बत पर
शब्दशः सटीक ना बैठे लेकिन भावार्थ को मझधार में फंसी मांझी की राजनीतिक नैया से
जोड़कर देखा जा सकता है. ऐसा थोड़े ही होता है की प्रोपोज डे के दिन सबका प्रोपोजल
स्वीकार ही हो जाय और अगर हो भी जाय तो उस पर घर वालो की स्वीकृति का मुहर लग भी जाय.
दुश्मन घरानों के लड़के-लड़कियों से प्यार करने की गुस्ताखी वाली हिन्दी फिल्मों की
कहानियों का एक बदला रूप भारतीय राजनीति में भी नजर आता है. जी हाँ बदला रूप,
क्योंकि यहाँ आकर्षण के मद में अंधे लड़के-लड़कियां नहीं बल्कि राजनीति में अपने
स्थायित्व के लिए ठिकाना तलाश रहे नेता होते हैं. मांझी जी की मोदी जी से अलग से
मुलाक़ात नीतीश कुमार को नागवार गुजरी और ‘जीतन राम’ को जदयू से निकाल दिया गया. ठीक
वैसे ही जैसे लाख मनाही के बाद भी मुलाक़ात करने वाले हिन्दी सिनेमा के
प्रेमी-प्रेमिकाओं को अमरीश पुरी जैसे जुल्मी बाप का कोपभाजन बनना पड़ता था.
लेकिन इश्क के लिए की गयी बगावत भी भला घुटने
टेकती है ? इसे समर्थन मिल ही जाता है दोस्तों और प्यार को पाकीजगी के रूप में
देखने वालो का. दलितों-पिछड़ों से अपने प्यार के लिए मुख्यमंत्री पद पर बने रहने को
प्रयत्नशील मांझी जी को जदयू के कई विधायको का पहले से ही समर्थन प्राप्त है. और
इधर आज ‘ना-ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे’ वाले अंदाज में ‘शाहनवाज जी’ ने
भाजपा का मांझी प्रेम की मंशा जाहिर कर ही दी. वाल्मीकि की जन्मभूमि में अश्वमेघ
का घोड़ा दौड़ाने की दूरदृष्टि से युक्त शहनवाज जी का मांझी को समर्थन देने वाला बयान
राजनीति में भी इस शेर को चरितार्थ कर रहा है कि,
‘’मुहब्बत में बुरी नियत से कुछ सोचा नहीं जाता,
कहा जाता है उसको बेवफा समझा नहीं जाता’’
जी हाँ क्योंकि कुछ दिन पहले ही बिहार वाले मोदी
जी को अपनी राजनीतिक नैया ही मझधार में नजर आने लगी थी तो उन्होंने झटाक से मांझी
को भी नीतीश वाली कैटेगरी में ही डाल दिया था.
अपने बेबाक बयानों से पहले से ही सुर्ख़ियों में
रहने वाले मांझी, मोदी से मुलाक़ात के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी बिना लाग लपेट
के बात किए. बहुमत साबित करने के लिए महामहिम से 20 फरवरी तक का समय मांगना और
अपने समर्थक विधायको की संख्या को अभी राज ही रहने देने की बात कहना मांझी की किसी
गुप्त रणनीति की ओर इशारा करता है. हालाँकि आज एक जदयू विधायक द्वारा मांझी पर
विधायको की खरीद फरोख्त का इल्जाम लगाने वाली घटना इस ‘गुप्त रणनीति’ और राजनीतिक
उठापटक के बीच भी मांझी की मुस्कान पर सवाल खडा करता है. इन सब के बावजूद 117
विधायको का समर्थन पाना मांझी जी के लिए मुमकिन नजर नहीं आ रहा है. 1961 से अब तक
बिहार की राजनीतिक बग्घी 33 मुख्यमंत्रियों के कंधे से होकर गुजरी है लेकिन अपने
बहुत छोटे से कार्यकाल में ही खबरों में जो जगह मांझी ने बनाई वह किसी को नसीब नहीं
हो पाया. भले ही मांझी मुख्यमंत्री ना रहें लेकिन यह तो वे शान से कह पाएंगे कि,
‘रहें ना रहें हम महका करेंगे,
बन के कली बन के सबा बागे वफा में...’
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