रविवार, 19 जुलाई 2015

मेरी यादगार ईदी

अपने कोमल हाथो से उसने मेट्रो की फर्श पर नारियल तोड़ने का पूरा प्रयास किया लेकिन जब असफल रहा तो पूरा मेरे हाथ में लाकर रख दिया, 'आप ले दाओ, मम्मी कुत नहीं बोलेगी।' दिल्ली मेट्रो में मेरा अब तक का सबसे हसीन और यादगार सफ़र था यह।
नेहरू प्लेस मेट्रो स्टेशन पर जैसे ही मैं मेट्रो में दाखिल हुआ एक भाई साहब दौड़ते हुए एक बच्चे को गोद में लिए अंदर आए लेकिन उनके साथ की औरत जब तक भीतर आ पाती गेट बंद होने लगा। मैं क्योंकि गेट के पास ही था, जल्दी से अपनी डायरी गेट के बीच में कर दिया, जिससे गेट फिर से खुला और वो अंदर आ गई।

'थैंक्यू अंकल' मेरे बालों में हाथ फेरते हुए उस बच्चे की आवाज बहुत मीठी थी। मैं उसे देख कर मुस्कुरा दिया , बस। तभी फिर से उसकी मीठी तोतली आवाज आई, 'हैप्पी इड'। मैने भी मुस्कुरा कर सेम टू यू बोल दिया।
कुछ देर बाद मेरे हाथो पर कुछ स्पर्श महसूस हुआ। देखा तो वही बच्चा हाथ में कुछ लिए खड़ा था। 'ये लो आपके लिए' उसकी मुट्ठी में बादाम-किसमिस इत्यादि था। मैं क्या, वहां खड़े सभी लोग आश्चर्य से उस नन्हे बच्चे को देख रहे थे। मेरे हाथ में वह रख ही रहा था कि पास में खड़े और लोगों की तरफ इशारा करते हुए मैं बोला, 'और भी लोगों को दो।' बच्चा तपाक से बोला, ' नईं औलो ने मेली मम्मी के लिए गेत नईं खोला है।' नारियल वाली घटना ऊपर में बता ही चुका हूँ। हालाँकि मैंने वह नारियल लौटा दिया।

ऐसे तो बहुत बार इस सच को चरितार्थ होते देखा हूँ कि 'बच्चे मन के सच्चे' लेकिन इस अनुभव ने मन को भाव विभोर कर दिया। सच में आज गहराई से यह बात समझ में आई है कि, 'ये हिन्दू मुसलमान होना तो जीने का एक सलीका भर है असली धर्म तो इंसानियत है।'
मुनव्वर राणा साहब का एक शेर याद आ रहा है। हालाँकि उन कुछ पलों में जितना मैं उस बच्चे या उस परिवार को समझ पाया हूँ, यह शेर उन्हें कहीं से भी स्पर्श नहीं करता लेकिन उस जैसी नन्ही सी जान में भी मजहबी बीज बोने वाले अन्य लोगों के लिए,
'इन्हें फिरका परस्ती मत सीखा देना कि ये बच्चे,
जमीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं।'

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