रविवार, 19 जुलाई 2015

सियासत को सीख देता एक सिनेमाई सपना

‘हजारो सरहदों की बेड़ियाँ लिपटी है क़दमों से,
हमारे पाँव को भी पर बना देता तो अच्छा था,
परिंदों ने कभी रास्ता नहीं रोका परिंदों का,
खुदा दुनिया को चिड़िया घर बना देता तो अच्छा था।‘

सीमा पर जारी संघर्ष के बीच संवेदना जगा देने वाली इस फिल्म के कुछ सीन नम आँखों के साथ किसी शायर के इस शेर की याद दिला गए। सच में, ‘कबीर खान’ ने साबित कर दिया है कि वर्तमान सिनेमाई समाज सिर्फ प्यार को बाजार बनाकर परदे पर बेचने का काम नहीं करता, यह सामाजिक और सियासी सच्चाई को चलचित्र के माध्यम से समाज तक पहुंचाने का भी काम करता है। सियासी फैसलों और ख़बरों से इतर अगर हम इस बात की पड़ताल करें कि पाकिस्तानी आवाम हिन्दुस्तानी लोगों के बारे में क्या सोचती है तो शायद परिणाम उस रूप में सामने नहीं आएगा जिस रूप में इसे हम देखते हैं या हमें दिखाया जाता है, और हाँ इस मुद्दे पर सकारात्मक सोच रखने वाले ‘एक नहीं कई खुदा के बन्दे हैं हिन्दुस्तान में’ भी।
साल मुझे याद नहीं लेकिन भारत पाकिस्तान के बीच एक मैच चल रहा था खेलते हुए राहुल द्रविण के जूते का फीता खुल गया जिसपर शायद उनका ध्यान नहीं था, तभी एक खिलाड़ी आया और उसने खुद अपने हाथो से द्रविण के फीते को बांधा, वह कोई भारतीय खिलाड़ी नहीं था बल्कि पाकिस्तान के इंजमाम-उल हक़ थे। अभी कुछ साल पहले गूगल का एक विज्ञापन आता था जिसमे दिखाया गया था कि, ‘भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद एक दूसरे से अलग हो जाने वाले दो दोस्त गूगल की सहायता से कैसे मिलते हैं।‘ पहली बार वह विज्ञापन देखते हुए मेरी आँखे नम हो गई थी। वह सिर्फ विज्ञापन नहीं इस बात का जीता-जागता उदाहरण था कि ‘दो भाइयों में बंटवारा हो जाने से दिल की दूरियाँ नहीं बढ़ती।‘
यह सच है कि पाक के नापाक सियासी फैसले हर दिन किसी भारतीय माँ की गोद सुनी कर रहे हैं, हर दिन किसी सुहागन की मांग उजड़ रही है और हर दिन कोई बुढा बाप जवान बेटे की लाश पर विलाप करने को मजबूर हो रहा है। यह सच है कि नामुराद सियासी हुकमरानों ने पाकिस्तानी आवाम को संगीनों के साए में रहने को मजबूर कर दिया है लेकिन यह भी सच है कि उसी पाकिस्तानी मिट्टी ने ऐसे बेटों को भी जन्म दिया है जो ‘एक निर्दोष को विदेशी जासूस कहना अपने मुल्क की शान के खिलाफ समझता है।
अगर आपने ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ फिल्म देखी हो तो याद होगा, उसमे एक सूबेदार अपने बड़े अफसर (डैनी) द्वारा अक्षय कुमार के साथ बाजी हार जाने के बाद भी अक्षय कुमार को रिहा नहीं करने पर उस अफसर से कहता है, ‘यह वर्दी आवाम का भरोसा है हम पर, यह हमें इसलिए नहीं मिलती कि फौजियों को दहशत गर्दियों का लिबास पहनाकर उनसे कारगिल कराएं और फिर मुंह की खाकर आवाम को शर्मिन्दगी का अहसास कराएं।‘ इसके बाद वह सूबेदार खुद जा कर अक्षय कुमार को वहां से भागने में मदद करता है। सियासी संघर्ष अपनी जगह है लेकिन सच का साथ देना अपनी जगह। पाकिस्तानी होना हिन्दुस्तान का दुश्मन होना नहीं है लेकिन हाँ, खुद को मुसलमान कह कर ईमान को गिरवी रख देना गुनाह है। काश, सीमा पार के निगहबान इस सच को समझ पाते कि पाकिस्तानी आवाम ‘बजरंगी’ को भी ‘भाईजान’ बना लेती है।
यह तो सच है कि यह सिनेमाई सपना ‘बर्लिन’ की घटना में तब्दील नहीं हो सकता है। ज्यादा पाने की लालसा ने भले ही दोनों मुल्कों के हालात बदल दिए हैं लेकिन हिन्दुस्तान की मिट्टी जब भी पाकितानी मिट्टी से गुफ्तगू करती होगी तो मुनव्वर राणा साहब के इन शब्दों में ही कि,
‘बिछड़ना उसकी ख्वाहिस थी न मेरी आरजू लेकिन,
ज़रा सी जिद ने इस आँगन में बंटवारा कराया है।‘

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