''..जब छोटा रामना
के एक चावल व्यवसायी उधारी के एवज में मेरा घर नीलाम करवाना चाहते थे तब हर प्रकार
के उपाय से थक हार कर मैंने अपने एक राजस्थान के कवि मित्र को ख़त लिखा था कि आप
मेरा घर बचा सको तो बचा लो लेकिन वो मित्र भी मेरा घर नहीं बचा सके और मेरा मकान
नीलाम हो गया..’’
उन चंद पन्नों पर ना
ही किताब का नाम लिखा था और ना ही लिखने वाले का। लेकिन एक भांजे वाले को दो रुपया
देकर जब मैंने उन पांच पन्नों को लिया तब नहीं जानता था कि यह मेरे सामने काव्यकुल
में लेखनी के मामले में सबसे धनी साहित्यकार की जिन्दगी का ऐसा ग़मगीन रंग बिखेरेगा
कि मैं भी हताशा से भर जाउंगा। उस समय मैं पांचवी कक्षा में पढता था जब मुझे ‘गोपाल
सिंह नेपाली’ जी के संघर्ष के दिनों को कलमबद्ध किए हुए चंद पन्ने मिले थे। जब
मैंने उन्हें पढ़ा तो सोच में पड़ गया कि क्या ऐसा भी हो सकता है कि आम आदमी की आवाज को अपने शब्दों में ढालकर आजीवन सत्ता, सियासत और
व्यवस्था को आईना दिखाने वाला काव्यकुल का पुरोधा खुद अपना घर नीलाम होने से नहीं
बचा सका और उसके बाद के जीवनयापन के लिए उसे महज 500 रूपये में फिल्मों के लिए गीत
लिखने पड़े। ऐसा
नहीं है कि उस समय के सभी साहित्यकार उसी हाल में थे, बहुत से साहित्यकार सत्ता का
वंदन कर मलाई काट रहे थे लेकिन ‘नेपाली’ जी ने वह नहीं किया। उन्होंने लिखा
भी है,
‘...तुझ-सा
लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम...’
स्वाधीन
कलम के धनी इस कलमकार ने सत्ता और सियासत को किस तरह से सीख दिया उसकी बानगी है ‘नेपाली’
जी की कविता ‘सत्ता चलती तलवार से’ की यह चंद पंक्तियाँ,
‘...तुम
उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो,
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो,
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़,
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़
की पतवार से,
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार
से...’
समाज
के निचले तबके के लिए ‘नेपाली’ जी ने खूब कलम चलाया। उनकी एक कविता की पंक्ति है,
‘...गिर
रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले,
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले।‘
जब 1962 में चीन ने भारत में घुसपैठ की तो
नेपाली जी ने एक लम्बी कविता लिखकर लोगों में जोश व उत्साह भरने का कार्य किया।
उसकी दो पंक्तियाँ है,
‘भारत
की तरफ चीन ने है पांव पसारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।‘
नेपाली
जी की लेखनी के बल को इस घटना से समझा जा सकता है कि प्रयाग में हुए एक साहित्यिक
आयोजन में मुंशी प्रेमचन्द ने उनका काव्य पाठ सुनकर कहा था, ‘क्या कविता पेट से
सीख कर आए हो।‘ 17 अप्रैल 1963 को हिन्दी साहित्य जगत में एक काला दिन
के रूप में याद किया जाता है जब एक कवि सम्मेलन में भाग लेने जा रहे कविवर नेपाली जी का भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर हृदयगति
के रुकने से मात्र 52 वर्ष में ही स्वर्गवास हो गया।
नेपाली
जी की कृतियों में उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन व हिमालय ने पुकारा प्रमुख हैं इसके अतिरिक्त
उन्होंने प्रभात, सुधा, रतलाम टाइम्स व योगी साप्ताहिक का संपादन
भी किया। आज
नेपाली जी की 105 वी जयंती है। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि गोपाल सिंह
नेपाली की जन्मभूमि ही मेरी भी मातृभूमि है। इनके जीवन की सच्चाई बनने वाले इन्ही
की इन दो पंक्तियों के माध्यम से सलाम इस गीतों के राजकुमार को,
‘मैं
हारा, मुझसे जीवन में जिन-जिनने स्नेह किया, जीते
उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते।’
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