शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

आजादी अभी अधूरी है!


कल एक समाचार पोर्टल ने उन 10 जगहों की सूची प्रकाशित की थी जहाँ पर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की आबो-हवा महसूस की जा सकती है। आज हम आजाद भारत की 69 वी वर्षगाँठ मना रहे हैं। पर दुर्भाग्य है हमारा कि इस लगभग 7 दशक के लम्बे समय में भी हम पूरे देश को इस स्थिति में नहीं ला सके हैं कि 125 करोड़ जनता आजादी को महसूस कर सके। वह यह सोच सके कि हम सही अर्थों में आजाद हैं। आप भले ही इसे नकारात्मकता के नजरिए से देखें लेकिन यह सच है और सोचने वाली बात है कि जिस देश में हर वर्ष 5 साल से कम उम्र के 10 लाख से अधिक बच्चे इलाज के अभाव में मर जाते हो वह आजाद है? जिस देश में हर 5 मिनट में 1 आदमी भर पेट भोजन न मिलने के कारण तड़प के मर जाता हो वह आजाद है? जिस देश में आज भी दो औरतें एक साड़ी के सहारे तन ढकती हो वह आजाद है?
यह सच है कि आज हमारी जीडीपी 57 लाख करोड़ है जो 1950-51 में 2.7 लाख करोड़ थी। यह भी सच है कि 1950-51 में हमारा जो निर्यात 606 करोड़ का था वह आज बढ़कर 19.20 करोड़ का हो चुका है। पर दुर्भाग्यवश कुछ आंकड़े ऐसे भी हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सच में हम आजाद हैं? 2011 की जनगणना कहती है कि, देश में 17.73 करोड़ लोग हर दिन सड़कों और फुटपाथ पर सोने को मजबूर हैं। यह संख्या सिर्फ उन लोगों की ही नहीं है जो गाँवों में रहते हैं, दिल्ली जैसे शहर में भी 46 हजार 724 लोग खुले आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। देश में 4 लाख डॉक्टर 7 लाख बिस्तर और 40 हजार नर्सों की कमी है। 18 फीसदी लोग महंगे इलाज के कारण प्रभावित होते हैं। आज भी हमारी 78 फीसदी आबादी 20 रुपये प्रतिदिन पर गुज़ारा करने को विवस हैआज भी हम उन माँ बहनों को माकूल माहौल मुहैया नहीं करा सके हैं जिन्हें हमारी संस्कृति देवी का दर्जा देती है पिछले दिनों हमारे एक अर्थशास्त्री नेता जी ने विकास में रुकावट का करण बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था को बताया था उस नेता जी को दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले चीन से सीख लेनी चाहिए जो आज भी उस जगह खड़ा है जहाँ अमेरिका भी उस पर उँगली उठने से डरता है परमाणु बम का प्रकोप सहने के बाद भी जापान अपनी उन्नत तकनीक से विश्व व्यापार पर अपना एकाधिकार कायम किए हुए है भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहाँ 64 फीसदी लोग 15-62 आयु वर्ग के है जिसे कामकाजी आयुवर्ग माना जाता है। हमारे प्रधानमंत्री विश्व के हर कोने में हमारी इस ताकत का परिचय देते हैं लेकिन क्या हम सच में अपनी इस ताकत का सही उपयोग कर पा रहे हैं? शायद नहीं।
15 अगस्त 1947 को पहली बार आजादी की आबो-हवा में भाषण देते हुए नेहरु जी ने कहा था, ‘जब तक जनता की आँख में एक भी आंसू की बूंद होगी, हमारा काम पूरा नहीं होगा।’ आज भारत की जमीनी हकीकत देखें तो पता चलता है कि नेहरु जी ने जिस काम की बात कही थी वह आज भी अधूरा है। संसद में जनहित में काम की जगह केवल विरोध के लिए विरोध करने वाले हमारे नेताओं को नेहरु ही के उस सपने को याद करते हुए हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की इन पंक्तियों से सीख लेकर सावधान होने की जरुरत है कि,
15 अगस्त का दिन कहता आजादी अभी अधूरी है,
सपने सच होने बाकी है, राखी की शपथ ना पुरी है,
जिनके लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई,
वे अब तक है खानाबदोश गम की काली बदली छाई
।‘
सियासी नारों में जिन्हें देश का कर्णधार कहा जाता है उसके भविष्य पर सच में काली बदली छाई हुई है। आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथों  में गुटखे का थैला लिए ट्रेनो-बसों में घूमते बच्चो की मासूम आँखे उन समाज के ठेकेदारो से हर दिन प्रश्न करती दिख सकती है कि क्या सच में हमें आजाद हुए 7 दशक होने को है? आँकड़े बताते है कि भारत में हर वर्ष 5 साल से कम उम्र के 10 लाख से अधिक बच्चे इलाज के अभाव में मर जाते है स्वाभाविक है जो अभिभावक अपने लाड़ले की तन की भूख को तृप्त नही कर सकता उसके लिए बच्चे का इलाज और उसे स्कूल भेजने कि बात सोचना भी बेमानी होगी महान समाजवादी नेता ‘राम मनोहर लोहिया’ ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री का बेटा हो या राष्ट्रपति कि हो संतान, टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।’ पर आज जब 69 वे स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पूर्व सुबह के पहले साक्षात्कार में पीठ पर कचरे का थैला लिए एक छोटे बच्चे को देखते है तो लोहिया जी कि ये बातें सपना ही प्रतीत होती है यह हालत केवल एक शहर या राज्य विशेष कि नही है, कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे भारत में हम देश के भविष्य कहे जाने वाले नौनिहलो के इस गर्तोन्मुख गन्तव्य से रूबरू हो सकते है|
आज झंडे को सलामी देकर लौटते समय किसी लालबती पर हाथ फैलाए हुए कार के सीसे पर दस्तक देता हुआ कोई मासूम दिखे तो सोचिएगा कि हम ‘अदम गोंडवी’ के इन सवालों का जवाब आज तक क्यों नहीं ढूंढ सकें कि,
‘आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।’

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