रविवार, 23 जून 2013

कहाँ है मानवता?


आज पता नहीं मानवतावाद कहाँ गुम होता जा रहा है? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उतराखंड में आपदाग्रस्त लोगों को भी मनमानी कीमत पर जरूरी समाने बेचना है| एक तरफ वो लोग है, जो अपनी जान जोखिम में डाल लोगो को मौत के मुँह से निकाल रहे है| दूसरी तरफ वो लोग भी है, जो इस मनहुस मौके का फायदा उठा कर आपदाग्रस्त लोगो को ठगने में लगे है| आदमी लोकतंत्र में विश्वास इसलिए करता है, आदमी वोट इसलिए देता है, कि जब वह् मुस्किल में होगा तब ये सियासी ताकत उसका सहायक बनेगी| लेकिन जब आपदा कि स्थिति में वो नेता जी उसे कहीं नजर नहीं आते, तब उसे लोकतांत्रिक शासन् प्रणाली पर शक़ होने लगता है| आखि आदमी इतना निष्ठुर क्यो हो गया है? कहाँ है हमारी वह् युवा शक्ति जिसके लिए हम विश्व विख्यात है, युवा शक्ति किसी भी देश के किसी भी शक्ति का सबसे बड़ा संसाधन होती है| जो आज भारत में सियासत के कुचक्र में बुरी तरह फंसती जा रही है| मुझे लगता है मानवतावाद के गुम होने का सबसे बड़ा कारण यही है| क्योकि आज किसी पर होते अत्याचार को देखकर हमारी रगो में उबल नहीं आता, हमारे सामने निरीह लोगो पर दरिन्दे जुल्म ढाते है और  हम मूक बने रहते हैं| और वही जब कोइ सियासी चालबाज़ हमारी हाथों में तिरंगा पकड़ा देता है तो हम उसके लिए मरने-मरने तक को उतारू हो जाते है, आखिर क्यो? अब हमे इन राज़सता वाले लोगो के बारे में सोचना छोड़कर अपने देश के बारे में सोचना होगा| क्योकि 'ये' जायेंगे या 'वो' आयेंगे कहानी वही रहेगी| और इस कहानी को बदलने के लिए हमे जरूरत है एक साफ़-सुथरी, ईमानदार छवि वाले नेता की| पार्टी कोई भी हो नेता ईमानदार होना चाहिए, जो आपदा के समय जनता के बीच अपने पैरों से चल कर जाय और उनका दुःख बाँटे| आज सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बुरी छवि वाले नेताओं के विरुद्ध अभियान चल रहा है, जिसपर सबसे ज्यादा युवा लड़के-लड़कियाँ अपनी प्रतिक्रियाये दे रहे हैं| लेकिन अब हमे फेसबुक ट्विटर से बाहर आकर जमीनी स्तर पर कुछ करना होगा| क्योकि, डॉ कुमार विश्वास जी के शब्दों में -   ''मुर्दा लोहे को भी औज़ार बनाने वाले,
            अपनी आँसू को भी हथियार बनाने वाले,
            हमको नाकाम समझते है सियासत दा मगर,
            हम है इस मुल्क की सरकार नाने वाले|''




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