ऐसे तो उस ट्रेन या उस गंतव्य की ओर यह मेरी पहली
यात्रा नहीं थी लेकिन जीवन में पहली बार पहियों पर दौड़ रहे जिन्दगी के कुछ पल ने
मुझे भारत की उस वास्तविकता से रूबरू कराया जहाँ जिन्दगी ही पहियों के इर्द-गिर्द
घुमती है.
दिल्ली से बिहार के लिए जाने वाली ट्रेने तो वैसे
ही अपनी क्षमता से अधिक यात्रियों को ढोने के लिए अभिशप्त है लेकिन उस दिन हमारे
कम्पार्टमेंट की भीड़ इस बात की ताईद कर रही थी कि अब हमें ‘हम
दो हमारे एक’ तक सिमट जाना चाहिए. कारण था कि उस दिन 15
मार्च था और अगले दो दिनों बाद होली थी. होली एक ऐसा त्यौहार है जिसकी आहट पहले ही
हो जाती है. मेरे सहयात्रियों में भी कई अपने बच्चो के लिए विभिन्न प्रकार की
पिचकारिया लेकर जा रहे थे. मेरी सीट खिड़की के पास थी. खिड़की से बाहर ट्रेन की ही
रफ़्तार से उल्टी दिशा में भागते हुए, नजरों से ओझल हुए जा
रहे नजारों खेत, पेड़, नदी, घर, आदमी, बच्चो में से एक पर
मन ठहर सा गया. हुआ कुछ यूँ था कि मैंने पानी पीकर जैसे ही बोतल बाहर की तरफ फेंका,
पीठ पर कचरे का थैला लटकाए एक बच्चे ने उसे लपक लिया. मैं ज्यादा
देर तक तो उसे नहीं देख सका लेकिन आपातकालीन खिड़की होने के कारण मैंने सर निकाल के
देखा तो उस बच्चे के चेहरे पर वो खुशी थी जैसे कि उसे खजाना मिल गया हो. देश का यह
तथाकथित कर्णधार जो असमय ही कामगार में तब्दील हो रहा था शायद किसी मध्यमवर्गीय या
उच्च परिवार में होता तो अब तक मुश्किल से जिन्दगी की 7-8 मोमबतियां ही बुझा सका
होता. अगर वो किसी अमीर बाप की औलाद होता तो ट्रेन से फेंके गए एक बोतल को कैच
करने की उसकी काबिलियत का किसी बड़े स्टेडियम से सामना हो सकता था. शरीर पर नदारद चिथड़ो की भी कमी पूरी करती उस मासूम की पीठ पर लदी कूड़े की
बड़ी थैली में बेहद सलीके से बोतल रखती वो नन्ही हाथे इस काबिल हो चुकी थी कि कलम
पकड़ सके लेकिन हमारे हुक्मरानों और निति-नियंताओ ने उसे इस कदर बनाया ही कहाँ है !
यह किस्सा उस उत्तर प्रदेश का है जहाँ जन्मे एक समाजवादी नेता ने इन मासूमो की
आँखों को एक सपना दिखाया था कि ‘प्रधानमंत्री का बेटा हो या
राष्ट्रपति की हो संतान टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक सामान.’’ लेकिन लोहिया जी की इस विरासत को संभालने वाले उनकी इस विचारधारा को ही
भूल गए.
मै इन्ही विचारो में खोया था कि, चोर-चोर,,,मारो-मारो,,,और चांटे की एक की श्रवण भेदी आवाज से मेरी तन्द्रा भंग हुई देखा तो एक छोटे बच्चे पर एक आदमी अपने पुरे दम के साथ प्रहार कर रहा था. वो बच्चा चिल्लाता रहा, ‘मै चोर नहीं हूँ, मै चोर नहीं हूँ’ लेकिन थप्पड़, घुसो और लातो की संख्या बढ़ती जा रही थी. उसका जुर्म ये था कि उसने एक बैग से पिचकारी निकालने का असफल प्रयास किया था. मेरे साथ 3 सज्जन और थे जिन्होंने बीच बचाव कर उसका पक्ष जानने की बात रखी. जब उस मासुम से दिखने वाले बच्चे ने मासूमियत से अपनी कहानी बयां की तो सच में दिल भर आया. किस्मत की क्रूरता के द्वारा सताए गए उस अनाथ से उसकी छोटी बहन ने पिचकारी खरीदने की जिद की थी. गोंडा स्टेशन पर कटोरा बजाते हुए जिन्दगी के 12 साल व्यतीत करने वाले उस मासूम के शब्दों में, उसने पहली बार यह चोरी की थी क्योकि उस दिन उसे भीख में उतने पैसे नहीं मिले थे जिससे कि वो अपनी बहन के लिए पिचकारी खरीद सके. जिस उम्र में बच्चे अपनी खुशी के लिए माँ बाप को कीमती से कीमती सामान का सौदा करने को मजबूर कर देते हैं उस उम्र में अपनी बहन की खुशी के लिए अपनी जमीर का सौदा करने वाले उस बच्चे की कहानी यहीं तक पहुँची थी कि खाकी वाले उसे खींच ले गए.
शायद यही उसकी नियति भी थी क्योंकि वह ‘मुकद्दर
का सिकंदर’ का सिकंदर नहीं था जो अपनी मेम साहब के लिए दूकान
से गुड़िया की चोरी करता है और उसे उनतक पहुंचाने की सफल कोशिश भी. यह तो उस बच्चे
की वास्तविक कहानी है जो जिन्दगी को दुल्हन बनाए तो भी ‘सुलतान
मिर्जा’ ही बनेगा वरना तमाशा तो बनना ही है.
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