गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

गणतंत्र नहीं 'गनतंत्र'

''जब तक राज्यसभा और लोकसभा में कम से कम 10 फीसद शायर, कवि, लेखक, पत्रकार इस तरह के ज़िंदा दिल लोग नहीं आएँगे तब तक मुर्दा घाटी ही रहेगा वो संसद भवन|'' प्राइम टाईम में 'रविश कुमार जी' से बात करते हुए मशहूर शायर 'मुन्नवर राणा' जी द्वारा कही गई ये बातें सच में दिन-ब-दिन पंचर होते लोकतंत्र के चारो पहियो में फिर से हवा भरने का एक मात्र उपाय है|
एक प्रसंग सुनने को मिलता है कि एक बार संसद भवन से निकलते समय नेहरू जी के कदम लड़खड़ा गए और वो गिरने ही वाले थे कि पास ही खड़े 'निराला' जी ने उन्हें सम्भाला| नेहरू जी के धन्यवाद कहने के बाद 'निराला' जी का जवाब था 'नेहरू जी जब-जब शासन के कदम लड़खड़ाएंगे अदब उसे सहारा देगा|'
वर्तमान समय में जब राजनीति बाहुबली और फायरब्रिगेड सरीके उपनामों के इर्द-गिर्द घूमने लगी है अच्छे लोगो का राजनीति को सेवार्थ अपनाना दूभर होता जा रहा है| 'मुन्नवर राणा' साहब ने एक शेर भी कहा है,
''सरीफ इंसान आखिर क्यों एलेक्सन हार जाता है,
कहानी में तो ये लिखा था रावण हार जाता है|''
भले ही चुनाव आयोग कितना भी पैसा खर्च करके जागरूकता पैदा करे लेकिन वास्तविकता आज भी यही है कि भारत की एक बड़ी आबादी वोट देते समय खुद को जातिगत भावना से निकाल नहीं पाती| चुनाव आयोग ने आम मतदाताओ को 'नोटा' का अधिकार दे तो दिया लेकिन उसकी सार्थकता खत्म कर दी| बहुत से राजनीतिक विश्लेसक इसके दुरागामी परिणाम देख रहे हैं| परन्तु हम यह कैसे मान सकते हैं कि 'नोटा' पर दबती अनगिनत उंगलियां राजनीतिक दलों को इस ओर प्रेरित करेंगी कि वे अच्छे लोगो को टिकट दें| वर्तमान राजनीति में यह आम बात हो चुकी है कि अपने किसी बुरी छवि वाले नेता पर कानूनी शिकंजा कसने के बाद पार्टियो को उनके परिवार का सहारा मिल जाता है| जहाँ केवल चेहरा बदलता है वोट पाने का तरिका नहीं| बात चाहे 'शहाबुद्दीन' की हो या 'पप्पू यादव' की या और किसी अन्य दागी जनप्रतिनिधि की जो अपनी पत्नियों को चुनावी मोहरा बनाते हैं| इस में सबसे कुसूरवार तो राजनीतिक दल है जो सब कुछ जानते हुए भी ऐसे लोगो के सगे सम्बन्धियों को टिकट दे देते हैं| इस गंदी राजनीति से क्षुब्ध होकर अगर जनता खुद को लोकतंत्र के इस महासमर से अलग होने का फरमान सूना दे तो उसका कुसूर नहीं है|         

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