गुरुवार, 4 सितंबर 2014

शिक्षक दिवस: गुरु शिष्य के अटूट रिश्ते का पर्व



''सात समुन्दर की मसी करूँ लेखनी सब वनराय,                                         पृथ्वी सब कागद करूँ गुरु गुण लिखा न जाय |''

संत कबीर का यह कहना कि 'सात समुद्र के जल को स्याही, जंगल की सभी लकड़ियों को कलम और पूरी धरती को भी कागज बना देने के बाद भी गुरु गुण नहीं लिखा जा सकता है' यह बताता है कि सच में गुरु की महता क्या होती है | गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, 'गु' यानी अँधेरे से 'रु' यानी प्रकाश की ओर ले जाने वाला | प्राचीन काल की बात करें तो आरुणी से लेकर वरदराज और अर्जुन से लेकर कर्ण तक सबने गुरु की महिमा को समझा और उनका गुणगान किया है | आज भी सफलता के शिखर पर पहुँचने वाला कोइ भी इंसान अपने गुरु को नहीं भूल सकता है जिन्होंने उसके सपनो को जीया है, उसकी सफलता को खुद का सपना बनाया है |
समाज को समाज बनाने का काम यदि कोइ शिल्पकार करता है तो वह होता है शिक्षक, शिक्षक वह समाजी शिल्पकार है जो बिना किसी मोह के इस समाज को तराशते हैं। शिक्षक का काम सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही नहीं बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से छात्रों को परिचित कराना भी होता है। शिक्षकों की इसी महत्ता को सही स्थान दिलाने के लिए हमारे देश में एक व्यक्ति का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है और वो हैं एक महान शिक्षाविद, दार्शनिक, चिन्तक और स्वतन्त्र भारत में प्रथम उपराष्ट्रपति, सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन | आज का दिन यानि 5 सितम्बर ही वह पुनीत दिन है जिस दिन इस पुरोधा का जन्म हुआ था | और तमाम पदों पर रहते हुए भी अध्यापन सेवा के प्रति उनकी निष्ठा ही थी कि उनके जन्मदिवस को हम ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाते हैं | भारत ही नहीं वरन समूचा विश्व डॉ राधाकृष्णन के व्यक्तित्व का गुणगान करता है | एक बार उनके स्वागत भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने कहा था, ''अमेरिका की धरती पर एक पगड़ीधारी स्वामी विवेकानंद तथा दूसरी बार डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के रूप में भारतीयता की अमिट छाप जो अमेरिकावासियों के हृदयों पर अंकित हुई है, सदा अमिट रहेगी।’'
लेकिन इसे हमारी विरासत में आधुनिकता का घुसपैठ कहें या भागदौड़ की जिन्दगी में जीवन के प्रथम शिक्षक के प्यार-दुलार और डांट-प्यार से दूरी, आज नई पीढी गुरु-शिष्य परम्परा से दूर होती जा रही है | लेकिन इस बात की प्रमाणिकता में आज भी कोइ संदेह नहीं है कि,
‘’गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ी-गढ़ी काढ़े खोट,                                       
 भीतर हाथ सहलाय दे बाहर मारे चोट  |''

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