रविवार, 1 मार्च 2015

जहन्नुम बन चुके जम्मू को फिर से जन्नत बख्सेगी यह जुगलबंदी ?

‘एक अच्छी तस्वीर वो होती है जो पुरी कहानी बता सके और एक अच्छी कहानी वो होती है जो एक तस्वीर में समा सके’ यह पीट चुकी फिल्म रॉय का ही एक बढ़िया डायलॉग है. लेकिन शुरू से ही कश्मीर को लेकर दो अलग अलग नजरिया रखने वाली पार्टियों की जुगलबंदी को दर्शाती मोदी-मुफ्ती की तस्वीर को भी आप इस डायलॉग की रौशनी में रखकर देख सकते हैं. जैसा कि डायलॉग में एक तस्वीर के जरिए ही कहानी बताने की बात कही गई है ठीक वैसे ही यह तस्वीर ही काफी है बयां करने के लिए कि राजनीतिक रूप से कश्मीर अब किस दिशा में जाने वाला है. इस बात की बानगी आज उस समय देखने को मिल गई जब पाकिस्तान को कश्मीर चुनाव के लिए योगदान देने की बात कहने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद के विवादित बयान के समर्थन में भाजपा नेता ‘हिना भट्ट’ कसीदे पढ़ती सुनी गईं. चुनाव परिणाम के बाद तक धारा 370 के मुद्दे पर झुकने को तैयार नहीं दिखने वाली भाजपा का आज नरम रुख अपनाने की कहानी भी इस तस्वीर में समाहित हो जाती है.
ना बुजूर्गों के ख्वाबो की ताबीर हूँ, ना मैं जन्नत सी अब कोई तस्वीर हूँ,
जिसको सदियों से मिलकर के लूटा गया, ऐसी उजड़ी हुई एक जागीर हूँ,
हाँ मैं कश्मीर हूँ, हाँ मैं कश्मीर हूँ, हाँ मैं कश्मीर हूँ, हाँ मैं कश्मीर हूँ.
कश्मीर के दर्द को ‘युवा कवि इमरान प्रतापगढ़ी’ की इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है. आजादी के बाद से ही कश्मीर को लेकर राजनीति अपनी तस्वीर बदलती रही पर अफ़सोस कि जिस तस्वीर के लिए जम्मू-कश्मीर को धरती के स्वर्ग का खिताब मिला उसे दोबारा हासिल करने के लिए आज भी जमीन का यह जन्नत अपने जनप्रतिनिधियों की ओर देख रहा है. कुम्हलाई हुई कश्मीरी केसर की क्यारियाँ, गोलियों की गड़गड़ाहट से काँप जाने वाली कश्मीरी जनता और बूटों की धमक से सहम जाने वाले राह चलते लोग कश्मीर की वह कहानी कहने के लिए काफी हैं कि कश्मीर आज हमारे पूर्वजो के सपनो की सीमा से बहुत दूर आज एक भयावह सच का सामना करने को मजबूर है. मैं इस बात से गुरेज नहीं करता कि ‘लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई’ लेकिन बीते लगभग 70 बरस में राजनीति के पाक इरादे इस तस्वीर को बदल सकते थे कि जितनी देर पूरा हिन्दुस्तान आजादी का जश्न मनाता है उतनी देर कश्मीर संचार तंत्र से मरहूम रहता है. पिछले साल आई कश्मीर आपदा के समय मोदी सरकार ने हर संभव कदम उठाए कश्मीरियों की सहायता के. प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही कश्मीर के ऊपर मोदी जी की कृपा दृष्टि बनी हुई है लेकिन एक जगह मोदी सरकार चुकती हुई नजर आ रही है. आँखों में भविष्य के सपने सजाने और कलम थामने की उम्र में हाथो में रोड़े पत्थर और बन्दुक थामने वाले युवाओं को सही दिशा देने के लिए 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने घाटी के आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार के बारहवी पास बच्चों को वजीफा देकर कश्मीर से बाहर पढने की निति बनाई. इस निति का असर देखने को मिला और 2011 में घाटी से जो सिर्फ 89 बच्चे सरकारी खर्च पर पढने को निकले थे उनकी संख्या 2013 में 4000 को पार कर गई. इस बढ़ती संख्या का यह असर हुआ कि सरकार को अपने उस नियम में भी बदलाव करना पड़ा जिसके अनुसार देश के एक शिक्षण संस्थान में सिर्फ दो कश्मीरी ही पढ़ सकते थे. 2010 में शाह फैजल के आईएएस टॉप करने के बाद कश्मीरी बच्चों में पढने और कुछ बनने के ललक ने भी इस संख्या बल को सहारा दिया था. पर अफ़सोस कि 2014 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह कहते हुए कश्मीरी बच्चों के वजीफे पर रोक लगा दी कि हर संस्थान को सिर्फ दो कश्मीरी बच्चों के लिए टयूसन फीस और हॉस्टल फीस दी जाएगी. इस निर्णय का कुप्रभाव यह हुआ है कि कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को चिट्ठी लिखी है जिसमे कहा गया है कि अगर बच्चों के टयूसन फीस और हॉस्टल फीस का भुगतान नहीं होता है तो उनकी पढाई बीच में ही छुट जाएगी. हमारी सरकार के इस निर्णय से अगर कश्मीरी युवकों की आँखों में सजे सपने भरभरा गए तो यह हमारे लिए घातक कदम होगा. आशा है सरकार अपना यह निर्णय वापस लेगी क्योंकि राजनीतिक मुद्दों पर भाजपा को झुका लेनी वाली ‘पीडीपी’ कश्मीरियों से जुड़े इस मुद्दे को भी भाजपा के सामने जोरदार तरीके से रखेगी.


(वजीफे से सम्बंधित जानकारी  http://prasunbajpai.itzmyblog.com/ से )

1 टिप्पणी:

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