24 अक्टूबर की सुबह
समाचार पत्र पढ़ते
समय एक खबर
पर नजरें थम
सी गई,
मै सोचने पर
मजबूर हो गया
की हमारी युवा
पीढ़ी दिन-ब-दिन इतनी
अवसाद ग्रस्त क्यों
होती जा रही
है| खबर थी
उतरप्रदेश के फरीदाबाद
की जहाँ माँ
के डांटने पर
बेटे ने किरोसिन
छिड़क खुद को
आग के हवाले
कर दिया| यह
सर्व विदित है
कि ''पुत्र कुपुत्र
सुने है पर,ना माता
सुने कुमाता'' दुनिया
कि कोई ऐसी
माँ नहीं होगी
जो यह चाहेगी
कि उस के
कारण उसके बेटे
कि आत्मा को
ठेस पहुचे| फिर
यह बात तो
विश्वास से परे
है कि माँ
के डांट-फटकार
की नियत बेटे
के जीवन-लीला
की समाप्ति हो|
कोई भी माता-पिता खुद
के फायदे के
लिए बच्चो को
नहीं डांटते, उनका
उद्देश्य उनके बच्चो
का सुखद भविष्य
होता है| एक
बात समझ से
परे है कि
आज का युवा
इतने उबाल में
क्यों है, जबकि
यह उबाल सुकर्मो
के लिए नहीं
है| किसी के
दुष्कर्मो को रोकने
के लिए हमारी
रगों के उबाल
नहीं आता, किसी
परहोते अत्याचार को देखकर
हमारी ऊँगली नहीं
उठती, फिर हम
स्वयं ही स्वयं
के जान के
दुश्मन कैसे बन
जाते है| आजकल
शायद ही किसी
दिन किसी समाचार
पत्र का कोई
ऐसा पृष्ठ होता
है जिस पर
युवाओ के आत्महत्या
की खबर नहीं
है| अगर हम
दिल्ली की बात
करें, तो यहाँ
के कुछ गिने-चुने मेट्रो
स्टेशन ही है
जो युवक युवतियों
के आत्महत्या के
गवाह नहीं बने
है| हमारी युवा
पीढ़ी का इस
तरह अवसाद ग्रस्त
होना हमारे देश
के लिए एक
ज्वलंत मुद्दा बनता जा
रहा है|
हमें
सोचना चाहिए कि
हम उसी देश
के वासी है
जहाँ का एक
छोटा बच्चा शेर
के मुह में
हाँथ डाल कर
उसका दांत गिनने
की ताकत रखता
है, जहाँ माँ
के पेट में
पल रहा बच्चा
चक्रव्यूह भेदना सिख जाता
है| हम उस
भारत में निवास
करते है जहाँ
'तथागत अवतार तुलसी' जैसे
बच्चे भी होते
है जो 9 साल
में मैट्रिक,10 साल
में स्नातक और
12 साल में स्नातकोतर
पूरा करने की
ताकत रखते है|
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