सोमवार, 24 दिसंबर 2012

रक्षक या भक्षक-

मानवता को शर्मसार करने वाली घटना पर उपजे गुस्से को दबाने के लिए जब निर्दोष स्कूली बच्चो, महिलाओ और बुजुर्गो पर बेरहमी से लाठिया बरसाई गई, आंसू गैस के गोले दागे गए तो फिर से दिल्ली पुलिस की दरिंदगी सामने आई। 5.2 डी.से. वाले सबसे ठंढे दिन अपने माँ-बहनों के आबरू की रक्षा के लिए कृतसंकल्पित युवक-युवतियों को ठंढी हवा के थपेड़ो के बीच वाटर कैनल की मार भी नहीं डिगा सकी। ठंढ से कांपते होठ और आंसू भरी आँखों के साथ भी उनका डटे रहना बता रहा था कि अब पानी सर के उपाए से निकल चूका है, अब महिलाओ के साथ अनाचार और बलात्कार किसी भी कीमत पर सहन नहीं होगा। राजघाट से लेकर रायसीना हिल्स, कश्मीर से कन्याकुमारी और कोहिमा से कांडला तक उपजा जनाक्रोश इस बात का सूचक है कि, हमारे प्रजातंत्र की नुमाइंदगी करने वालो को समझ जाना चाहिए की भारत में अब जनसरोकारो और आम जनता के हित से जुड़े मसलो को लम्बे समय तक अपेक्षित नहीं किया जा सकता है। आजाद भारत में पहली बार बिना नेतृत्व के हजारो की भीड़ राष्ट्रपति भवन तक पहुँच गई। ये भीड़ किसी नेता या उसके नुमाइंदो द्वारा नहीं जुटी गई थी। ये भारत की आम आवाम है, जिसे छह दसक से ज्यादा के वादों और आश्वासनों ने और भी सशक्त और मुखर बना दिया है। अवैध रूप से बने मस्जिद को तोड़ने के सप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद शीला दीक्षित यह कहती है कि, ऐसा करने के लिए हमारे पास पर्याप्त पुलिस बल नहीं है। लेकिन जब निर्दोष लोगो पर लाठिया बरसाने की बात आई तो क्या आसमन से पुलिस टपकी है? 365 दिन दिल्ली की जो आम जनता पीने के पानी के लिए त्राहिमाम करती दिखती है, वही जब अपने माँ-बहनों की सुरक्षा के लिए आवाज बुलंद कर रही है, तो उसे उसी पानी से दबाने की कोशिश की जा रही है। भारत के महामहिम के पद की गरिमा कम नहीं हो जाती यदि वो भीड़ के समक्ष आ कर सांत्वना भरे दो शब्द बोल देते। अपने राष्ट्र के नाम सन्देश में दो आश्वासन भरे शब्द बोलते समय भावुकता की चादर ओढने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी अगर 16 दिसम्बर को ही अपना मौन व्रत तोड़ दिए रहते तो शायद आज हालत इतना नाजुक नहीं होता। आज जब कोई ठोस निर्णय लेने का समय है, इस समय हमारे गृहमंत्री जी इंडिया गेट पर प्रदर्शन करने वाले युवक-युवतियों की तुलना हथियारबंद मओवादियो से कर के भारत की युवा पीढ़ी को गुमराह कर रहे है। गृहमंत्री जी अगर यह कहते सुने जाते है कि ''यह कहना आसान है कि गृहमंत्री इण्डिया गेट जाएँ और प्रदर्शनकरियो से बात करें'' तो उन्हें जानना चाहिए की जिस पुलिस की लाठियों से आम जन की टूटी हाथो को वे जायज ठहरा रहे है, उसी हाथ की एक ऊँगली उन्हें खुद के मुह से खुद को गृहमंत्री कहने की ताकत देती है। दुराचारियो को कठोर से कठोर दंड देकर और हमारे बहन-बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करके हमारी सरकार के पास ये एक अच्छा मौका था आम जन के दिल से अपने लिए खो चुकी हमदर्दी को वापस पाने का। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और गृह राज्य मंत्री जी के केवल यह कह देने से की 'मै भी तीन बेटियों का पिता हूँ', आम जन के मन में बैठा आक्रोश शांत होने नहीं जा रहा है। महामहिम जी ये सोच कर देखे कि वो मंजर कैसा होगा जब 26 जनवरी को उनके 26 तोपों की सलामी देखने को आम-जन की दो आँखे राजपथ पर न मिले, और करतब दिखाते हुए उनके जांबाज सिपाहियों के लिए ताली बजाने वाले दो हाथ महफूज हो।

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