शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दरिंदों की दिल्ली-

किसी ने कहा है, ''नारी केवल नर की ही नहीं, नैतिकता की जननी है, त्याग समर्पण और दया सब गुणों की धरणी है।'' लेकिन पिछले पांच दिनों से सड़क पर आम जन का आक्रोश और संसद का हंगामा यह साबित करता है कि हमारे वर्तमान समाज में ये तमाम श्लोक और विचार ग्रंथो के पन्नो और आम जनमानस के लब तक ही सिमट कर रह गए है। 17 दिसंबर की वह काली रात जब हवस के पुजारियों के काले करतूतों से सारा भारत कांप उठा, उन हैवानो ने हैवानियत की ऐसी गन्दी तस्वीर पेश की जिसकी जितनी भी भर्त्सना की जाय कम होगी। इस घटना ने उन तमाम अभिभावकों को सोचने पर मजबूर कर दिया जो अपनी बेटियों को ही बेटा समझते है। दिल्ली की मेयर यह कहती सुनी जाती हैं की मै भी खुद को दिल्ली में सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हूँ। लडकियों को लडको के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की बात करने वाली सरकार और दिल्ली पुलिस उस समय कहा थे जब अपराधी चलती बस में डेढ़ घंटे तक युवती से दुष्कर्म करते रहे। इतनी बड़ी घटना के बाद भी दिल्ली पुलिस की तन्द्रा भंग नहीं हुई और अगले ही दिन रात के 10 बजे ''आज तक'' टी वी चैनल की एक महिला रिपोर्टर के साथ मनचलों की बदतमीजी का खबर आई। अगर हम केवल दिल्ली की बात करें तो इन घटनाओ से लेकर आज तक कोई ऐसा दिन नहीं बिता जब दुष्कर्म की कम से कम दो घटनाये दिल्ली पुलिस की कार्यवाही पर सवाल खड़े नहीं करते है। कहा जाता है, किसी भी देश की राजधानी समूचे देश का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन इस घटना के बाद और दिन--दिन बढ़ते ऐसे घटनाओ से समूचे विश्व की नजर में भारत की कैसी तस्वीर बनेगी हम सोच सकते है। वो भी भारत के एक ऐसे शहर और एक ऐसे राज्य की जहाँ की मुख्यमंत्री खुद एक महिला है। शर्म आती है जब इतनी बड़ी घटना के बाद मिल-बैठ कर इसका स्थाई निदान ढूंढने की बजाय हमारे नेता इस पर भी राजनीती करने से बाज नहीं रहे है, हद तो तब हो जाती है जब एक नेता यह कहते सुने जाते है कि ''यह उतनी बड़ी चर्चा का विषय नहीं है जितनी चर्चा इस पर हो रही है'' वही बलात्कारियो के लिए फांसी की सजा मुक़र्रर करने के सवाल पर हमारी एक सांसद जो महिला आयोग की पूर्व अध्यक्षा भी है, यह कहती सुनी जाती है कि, अगर बलात्कारियों को फांसी की सजा दी जाती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान पीड़िता को ही उठाना पड़ेगा। इन सब घटनाओ से स्थाई निजात पाने के लिए हमें मानविय मूल्यों को समझना होगा, हमारी आने वाली नश्लों को संवेदनशील बनाना होगा और इन्सान को इन्सान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा करनी होगी। अंत में मै यही कहूँगा, ''नर की जननी अबलाओ की अस्मत लुटती रोज यहाँ, बीच सड़क पर यहाँ नजारा दीखता तालिबान सा, वही किनारे लोग हजारो खड़े हाथ पर हाथ धरे, फिर भी क्यों लगता यह नारा मेरा भारत महान सा''

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