बुधवार, 7 अगस्त 2013

आख़िर कब खौलेगा खून?

देश महफूज रहे, इसके लिए पांच हिंदुस्तानी सैनिक पाक के नापाक हमले का मुकाबला करते हुए शहीद हो गए, और हमारे हुक्मरान अभी भी उस नामुराद पाकिस्तान के जबाब का इंतज़ार कर रहे है| क्या यही है हमारी ताकत जिसके लिए हम शान से कहते थे-
युनानो मिस्त्रो रोमा सब मिट गए जहां से,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी|
बहुत दुःख हो रहा है यह कहते हुए कि हमारी सरकार हमारी उस हस्ती को ही खत्म करने पर तुली हुई है| ऐसा नही है कि हमारे पास संसाधनों का अभाव है, अभाव तो बस एक अदद नेतृत्व की जो अपने संसाधनों का समुचित उपयोग समय के साथ करे| आजादी के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच 1948, 1965, 1971 और 1999 में चार जंग लड़े जा चुके है, और चारों में पाकिस्तान ने मुँह की खाई है| इसके बावजूद पाकिस्तान भारत को हमेशा उकसाता रहा है| इसी साल जनवरी में पाकिस्तानी सेना भारतीय सीमा में घुसकर दो भारतीय जवानों का सर काट कार अपने साथ ले गई थी| पर हमारे हुक्मरान हमेशा की तरह उस समय भी दो-चार जबानी हमले कर के शांत हो गए| अब मुझे लगता है आतंकवादियों के साथ मिलकर 5 जवानों को मारना उसी शांत होने का नतीजा है|

66 साल के बाद पाकिस्तान में लोकतन्त्र का राज कायम हुआ तो नए नेतृत्व से कुछ आशा जगी अमन चैन की, पर नवाज शरीफ भी उसी ढर्रे पर चलते दिख रहे है| अटल जी के समय में ही यह बात साफ़ हो गइ थी पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला तभी शुरु होगा जब सीमा पार से सीजफायर का उल्लंघन खत्म होगा| अगर पिछ्ले एक महिने की बात करे तो इस दौरान घुसपैठ की 12 कोशिशों में 17 आतंकी मारे गए जबकि 11 बार सीजफायर का उल्लंघन हुआ है| लेकिन फिर भी हमारी सरकार पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखती है| इन्हे यह बात समझ में क्यो नही आती कि साँप को कितना भी दूध क्यो ना पिलाया जाय वो हमेशा विष ही उगलता है| इस तरह के हमले हमारी सेना का मनोबल कम करते है| आखिर कब खौलेगा हुक्मरानों का खून? कब?
आज जब मिल बैठकर विचार करने का समय है, अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बनने पर सोचने का समय है, इस समय भी हमारे राजनेता इस मुद्दे पर राजनीति करने से बाज़ नही आ रहे है| ''युपीए सरकार अपनी पीठ थपथपाते हुए कह रही है कि दो दशकों में सबसे कम पिछले वर्ष मात्र 220 आतंकी घटनाएं घटीं| जबकि एनडीए के शासनकाल में सबसे ज्यादा 23,603 (प्रति वर्ष 3372) आतंकी घटनाएं हुई। लानत है ऐसी सोच पर जब शहादत पर भी ये नामुराद नेता राजनीति कर रहे है| कहना तो शोभा नही देता पर शायद यह कहना जरुरी हो जाता है, कि ''लगता है इन्हे उसका अनुभव नही है, जब एक प्रेयसि के हाथ कि मेहंदी सूखने से पहले ही माँग उजड़ जाती है, हाथों में राखी लिए एक बहन अपने भाई का मृत शरीर देखने को विवस हो जाती है, एक माँ की अन्धी आँखें के लिए जीवित और मृत शरीर में फर्क करना मुश्किल हो जाता है, और एक बूढ़ा बाप जवान बेटे के लाश पर विलाप करता है| हमारी सरकारी समझती है कि केवल 10-20 लाख रुपये दे देने से एक विधवा को एक पति मिल जाता है, तो यह इनकी भूल है| किसी कवी कि पंक्तियां यहाँ सटीक बैठती है-
तूने 20 लाख दिए है वीरों कि विधवाओ को
यानि लौटा दी कीमत उन वीर प्रसूता माओ को,

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